उस दिन ऑफिस से निकलते निकलते थोड़ा देर हो गई थी । धुंधलका छाने लगा था । रामादेवी चौराहे पहुंचा ही था कि किसी के कराहने की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा । मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई । मेरी नजर चौराहे के किनारे नीचे की तरफ जाकर ठिठक गई । Oh my God!!! ये क्या हो गया था । मैंने फौरन गाड़ी किनारे लगाई । भागकर उसके पास पहुंचा । उसकी हालत बेहद नाजुक लग रही थी ।
वह अर्धबेहोशी की हालत में छटपटा रहा था, बड़बड़ा रहा था । मैंने झट से पानी की बोतल निकाली और उसके मुँह पर छींटे मारे । छींटे पड़ते ही उसने आँखे खोल दी । उसने पानी पिया । अब उसकी हालत बेहतर लग रही थी ।
आखिर तुम्हारी ये हालत कैसे हुई? और अचानक खड़े खड़े यूँ गिर कैसे पड़े? मेरा इतना भर पूछना था कि उसकी आँखों में आँसू घिर आये । इससे पहले कि मैं कुछ और बोलता वह फट पड़ा- तंग आ चुका हूँ अपनी जिंदगी से ।
यूँ बिना मकसद के खड़े खड़े जीना भी कोई जीना है । कितना खुश था मैं जब यहां आया था । दिन रात ख़ुशी के मारे चमकता रहता । लेकिन अचानक एक दिन मेरी खुशियों को किसी की नजर लग गई । मेरा चमकना बन्द हो गया । इसके बाद तो जैसे लोगों ने मुझसे नजरें ही फेर लीं । कभी मुझे देखकर रुक जाने और मुझे देख कर ही आगे बढ़ने वाले लोगों ने मुझे एकदम भुला ही दिया ।
'तुम्हे चोट काफी लगी है, 108 डायल करूं??' मैंने उसके गम को हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा । 'जो चोट दिल पे लगी है उसका कोई ईलाज नहीं । और वैसे भी हम जैसों के लिए कोई हेल्पलाइन नहीं ।' उसने मुँह घुमाते हुए कहा ।
'सिस्टम ही खराब है' मैं बोला । 'सारी गलती तुम्हारी और तुम जैसे लोगों की है' वह फिर फट पड़ा । 'बैंकों में एक दिन पासबुक न छपे तो तुम लोगों का खून खौल उठता है । पूरा बैंक सिर पे उठा लेते हो । नीचे से ऊपर तक चिट्ठी पत्री कर देते हो । हम जैसों के लिए भी कभी खून खौला, कभी चिट्ठी लिखी? हमारा दुःख दर्द कम करने के लिए भी कभी किसी से मिले? हम तो तुम्हारे लिए 24 घण्टे काम करने को तैयार खड़े हैं कभी कोई हमारे लिए खड़ा हुआ?' इतना कहकर वो हाँफने लगा । 'हमारी किस्मत यही है हम लगेंगे और फिर गिरेंगे । यकीन न हो तो पूरा शहर घूम आओ । हर चौराहे पर मेरे जैसे न जाने कितने ट्रैफिक सिग्नल सड़कों की धूल चाट रहे हैं । ये मेरे बगल में जो बड़े बड़े गड्ढे दांत निपोरे तुम जैसों को चिढ़ा रहे हैं, ये जो बजरी रोड छोड़ इधर उधर भागी भागी घूम रही है, इसे देख तुम में से कितनों का खून खौला??? कितनों ने इसके लिए चिट्ठी लिखी??? हकीकत तो ये है कि हमारी चिंता न तो स्मार्ट सिटी बनाने वालों को है और न ही स्मार्ट सिटी के तुम जैसे जिम्मेदार स्मार्ट और कथित जिम्मेदार नागरिकों को है । मेरी चिंता मत करो मुझे यहीं और इसी हालत में रहना है । बस्स आज थोड़ा भावुक हो गया । तुम जाओ, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो और तुम भी आँखें बन्द कर लो ठीक उसी तरह जैसे यहां से गुजरते हर एक जिम्मेदार शख्स ने कर रखी हैं ।' ये कहकर उसने अपनी आँखें मूँद लीं ।
मैं निःशब्द था । उसकी बातों का मेरे पास कोई जवाब न था । मैंने अपना बैग उठाया, गाड़ी स्टार्ट की और बोझिल मन से जिम्मेदार नागरिकों की जिम्मेदारियों को याद करता हुआ घर को चल दिया ।
(तमाम चौराहों पर औंधे मुँह पड़े ट्रैफिक सिग्नल के खम्भों की दर्द भरी दास्ताँ)
--- By Nitendra Verma
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