नितेन्द्र वर्मा |
पेंशन
‘
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बधाई हो अम्मा | लो मुँह मीठा करो |’ दीपक ने आँगन में
घुसते ही सरोज के मुँह में बर्फ़ी का टुकड़ा डाल दिया | ‘क्या बात है आज बड़ा चहक रहा
है ?’ सरोज ने मुँह में पड़ी बर्फ़ी गटकते हुए पूछा | ‘अम्मा बात ही कुछ ऐसी
है...सुनोगी तो तुम भी ख़ुशी से उछल पड़ोगी | पता है तुम्हारी पेंशन बंध गयी है...’
ख़ुशी से हाँफ रहा दीपक एक सांस में बोल गया | ‘सच कह रहे हो जी ?’ अब तक किचेन में
जुटी उसकी पत्नी रानी खुशखबरी सुनकर एकाएक बाहर निकल आई | ‘जी हाँ...और यही नहीं
अगले ही हफ्ते यानि एक दो तारीख तक अम्मा की पेंशन आ भी जाएगी |’ दीपक और बहू के
चेहरे की चमक देख सरोज ने राहत की सांस ली |
तीन साल हो गये दीपक के बाबूजी को गुजरे | बिजली विभाग
में अधिकारी पद से सेवानिवृत मजे की ज़िन्दगी गुज़ार रहे बाबूजी को कैंसर ने ऐसा
जकड़ा कि उनके प्राण हर कर ही माना | उनके जाने से घर में आपातकाल सा लग गया | दीपक
की लाख मेहनत के बावजूद उसे कहीं नौकरी नहीं मिल पाई | बाबूजी ने रिटायर होने से
पहले ही जुगाड़ लगा कर उसे अपने विभाग में संविदा पर लगवा दिया था | लेकिन उसकी
तनख्वाह इतनी भी नहीं थी कि चार जनों का परिवार आराम से गुजर कर सके | वो खुद दो
और उसके दो छोटे बच्चे ऊपर से अम्मा...बड़ी मुश्किल थी |
सरोज ये खुशखबरी देने अपनी पड़ोसी और पक्की सहेली सेठानी
के यहाँ जाना चाहती थीं लेकिन घिर आये अँधेरे ने उन्हें रोक दिया | अगली सुबह
जल्दी ही वह उनके दरवाजे पहुँच गयीं | दरवाजा सेठजी ने खोला | उनके दोनों बेटे पढ़
लिख कर विदेश में नौकरी करते थे | सेठ जी खुद बड़े अधिकारी थे | घर में नौकर चाकर सब
लगा रखे थे इसलिये पूरे मोहल्ले में वो सेठ सेठानी के नाम से जाने जाते थे |
‘सेठानी जी मेरी भी पेंशन बंध गयी...’ सोफ़े पर पसरी सेठानी को देख सरोज बोल पड़ीं |
‘बहुत बढ़िया...तो तुम भी अब सेठानी से कम हो क्या ?’ सेठानी ने सरोज को छेड़ा | ‘अरे
मैं काहे की सेठानी...पता है दीपक ने कितनी दौड़ भाग की है पेंशन के लिये ?’ सरोज
ने चौपाल की विषयवस्तु स्पष्ट कर दी | इसके बाद जो दीपक गाथा शुरू हुई तो तभी थमी
जब उनकी लाडली पोती रिंकी उन्हें खाने के लिये बुलाने आ गयी |
आज महीने की पहली तारीख़ थी | सरोज को अजीब सा अनुभव हो
रहा था | आज शायद उनकी पेंशन मिल जाये | तभी दीपक गुनगुनाते हुए आया और बोला
‘अम्मा...जल्दी तैयार हो जाओ आज पेंशन मिलने वाली है...’ | सरोज तैयार हो गयीं | ठीक
दस बजे दोनों बैंक पहुँच गये | अम्मा को बेंच पर बैठा कर दीपक ने काउन्टर पर पेंशन
की जानकारी की और झट से वाउचर भर दिया | उसने हस्ताक्षर करने के लिये भरा हुआ वाउचर
कलम सहित अम्मा की ओर बढ़ा दिया | ‘कितनी पेंशन आई ?’ अम्मा ने वाउचर हाथ में लेते
हुए पूछा | ‘पच्चीस हजार के लगभग आई है...’ दीपक ने चहकते हुए जवाब दिया | ‘तो
पूरे ???’ सरोज ने दीपक पर प्रश्नवाचक
द्रष्टि डाली और असहमति जताते हुए वाउचर पर हस्ताक्षर कर दिये | सरोज ने काउन्टर
से पैसे लिये, गिने और अपनी पर्स में रख लिये |
अगले दिन इतवार था | पूरा परिवार अभी अभी बाजार से लौटा
था | सरोज ही घर में रह गयीं थीं | लग रहा था खरीददारी जम कर हुई थी | सब एक दूसरे
को अपने नये कपड़े पहन कर दिखा रहे थे | सरोज चुपचाप बैठे सब देख रही थीं | तभी
रिंकी दौड़ती हुई आई और उनके हाथों में एक पैकेट रख दिया | ‘इसमें क्या है रे मेरी
गुड़िया ?’ सरोज ने उसे अपनी गोदी में बैठाते हुए पूछा | ‘सरप्राइज है अम्मा...खोल
के तो देखो...’ रिंकी ने अपनी छोटी छोटी सी आँखें गोल गोल घुमाते हुए कहा | सरोज
ने झट से पैकेट खोल दिया ‘अरे इसमें तो साड़ी है...तू लायी है अपनी अम्मा के लिये ?’
‘नहीं मम्मा लायी हैं...’ रिंकी ने भोलेपन से जवाब दिया | ‘क्यों रे दीपक...’ सरोज
ने उसे तलब कर लिया | ‘हाँ अम्मा...’ दीपक तुरंत हाजिर हो गया | ‘बावला हो गया है
क्या...क्या जरूरत थी इतना खर्च करने की...’ सरोज ने अपना गुस्सा जाहिर कर दिया |
‘अब अम्मा साल भर से ज्यादा ही हो गया कुछ नया खरीदे हुए...बच्चे भी ज़िद करते हैं...’
असहाय सी मुद्रा में उसने जवाब दिया | ‘ज़िद करते हैं तो...बाकी का खर्चा कैसे
चलेगा ?’ इस बार सरोज का लहज़ा तल्ख़ था | ‘अम्मा अब तो पेंशन बंध गयीsss...’ कहते
कहते दीपक ठिठक गया | इससे पहले की अम्मा कुछ और कहतीं वह नजरें चुरा कर वहाँ से
निकल गया |
अगले दिन सुबह ही स्कूल ड्रेस पहने रिंकी और सोनू सरोज
के सामने खड़े थे | ‘अम्मा चार हजार रूपये दे दो स्कूल में विंटर यूनिफार्म के लिये
जमा करने हैं...’ रिंकी ने बैग से अपनी डायरी निकाल कर अम्मा के हाथों में रख दी |
अम्मा थोड़ा हैरान हुईं | उन्होंने डायरी खोली लेकिन उसे देख वह और हैरान हुईं
‘रिंकी बेटा इसमें तो केवल एक हजार रूपये देने को लिखे हैं...दोनों को मिलाकर दो
हजार ही तो हुए...’ | ‘हाँ अम्मा लेकिन मम्मा ने चार हजार ही बोले हैं...’ रिंकी की
बात सुन एक पल को सरोज के कान सुन्न पड़ गये | वह धीरे से उठीं और पर्स से निकाल कर
चार हजार रूपये रिंकी के हाथ में रख दिये | उनके कान अभी तक सनसना रहे थे | उनका
कलेजा यह सोच कर ही काँप रहा था कि कहीं यह शुरुआत तो नहीं...हालाँकि उनके बहू
बेटे ऐसे तो नहीं लेकिन पैसों का लालच अच्छे अच्छों की सीरत बदल देता है...वह देर
तक ख्यालों में डूबी रहीं |
सरोज का डर नाजायज नहीं था | वही हुआ जिसकी उसे आशंका
थी | अब घर के हर खर्चे उसकी पेंशन से ही पूरे किये जाने लगे | बच्चों की स्कूल
फीस, बिजली, पानी का बिल, गृहस्थी की चीजें, यहाँ तक की सब्जी भी उसकी पेंशन से
आने लगी | कहने को तो पेंशन वह अपने ही पास रखती लेकिन उसके पास रुक नहीं पाती | जब
तब कोई न कोई माँगता ही रहता | हफ्ते भर के अन्दर ही उसकी पर्स खाली हो जाती | वह समझ
नहीं पा रही थी कि क्या करे | ऐसा नहीं था कि वह अपनी पेंशन परिवार पर खर्च नहीं
करना चाहती थी लेकिन उसे यह कतई ठीक नहीं लग रहा था कि पंद्रह हजार में चल जाने
वाला परिवार अब उसकी पूरी पेंशन उड़ा रहा था | आखिर एक दिन खाना खाते समय उसने बहू
को टोक दिया ‘क्या बात है बहू लगता है आजकल खर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है ?’ ‘हाँ
अम्मा सो तो है...अब मंहगाई भी तो सुरसा की तरह मुँह खोले जा रही है |’ बहू ने तर्क
दिया | सरोज थोड़ा चिढ़ गयीं ‘वो तो साल भर पहले भी थी...तब तो पंद्रह हजार रूपये
में ही पूरा घर चल जाता था लेकिन अब तो मेरी पूरी पेंशन ही चली जाती है...’ | ‘तो
पेंशन मिलती किसलिये है...तिजोरी में छुपा के रखने के लिये ?’ बहू ने कटाक्ष किया
| यह बात सरोज के दिल को छलनी कर गयी | उन्हें लकवा सा मार गया | गले में अटका कौर
पानी से निगल कर वह खाना अधूरा छोड़ उठ बैठीं | आँखों की नम कोरें छुपातीं अपने
कमरे की ओर दौड़ लगा दी |
‘अब ऐसा भी क्या कह दिया...बहाना चाहिये मुँह फुलाने का
बस्स्स...’ अब तक खुद को संभाले सरोज बहू के ये शब्द सुनकर बुक्के फाड़ कर रो पड़ी |
वह बिस्तर पर औंधे मुँह पसर गयी | यह कमरा उसके ऐसे करुण क्रंदन का गवाह पहली बार
ही बना था | वह देर तक सिसकती रही | रानी पहले भी गाहे बगाहे सरोज के दिल को चोट
पहुंचाती रहती थी लेकिन सरोज ने ऐसे शब्द तो पहली बार ही सुने थे | वह बेहद एकाकी
महसूस कर रही थी | समझ नहीं पा रही थी क्या करे...रानी तो है ही ऐसी लेकिन दीपक उसे
समझता है | वह दीपक से बात करेगी...उसने तय कर लिया |
‘दीपक इधर तो आ जरा...’ शाम को दीपक के घर आते ही सरोज
ने अपने कमरे में बुला लिया | ‘हाँ अम्मा बोलो...’ अम्मा के पास बैठते हुए दीपक
बोला | ‘आज तो बहू ने हद ही कर दी...मालूम है क्या कहा उसने ?’ अम्मा ने शिकायतों
का पिटारा खोल दिया | ‘अम्मा रानी ने मुझे फोन करके सब बता दिया है...कुछ गलत भी
नहीं कहा उसने...तुम्हारी पेंशन घर के ही काम तो आ रही है...तुम्हारा भी रहने खाने
का खर्च उठाते हैं हम...रिंकी और सोनू तुम्हारे भी तो बच्चे है उनकी पढ़ाई का खर्च
तुम्हारी पेंशन से दे दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा...पेंशन बांध के साथ तो नहीं ले
जाओगी...ये मत भूलो अम्मा कि तुम्हारी पेंशन दौड़ धूप के मैंने ही लगवाई है...अरे
नीचे से ऊपर तक सबको पैसे देने पड़े तब जाकर बंधी है पेंशन...पंद्रह बीस हजार तो मेरी
जेब से घुस गये...एक बात याद रखो अम्मा तुम्हारी पेंशन अकेले तुम्हारी नहीं है...हम
सब का अधिकार है उसपे | और सुनो अब मुँह फुलाने वाली बच्चों सी नौटंकी छोड़ो...हुँह
पड़े पड़े दो वक्त की रोटी मिल रही है लेकिन संतोष नहीं... ’ दीपक बड़बड़ाते हुए बाहर
निकल गया | उसका जवाब सुन सरोज को तो जैसे काटो तो खून नहीं | वह जड़ हो गयी |’
सरोज अगले दिन भी बाहर नहीं निकली | अँधेरे में पड़ी बस आँसू
बहाती रही | उस दिन किसी ने उसे देखने की जहमत भी नहीं उठाई | दूसरे दिन भी जब वह
बाहर नहीं निकलीं तब दीपक कमरे में आया | अम्मा उकडू लेटी कराह रही थीं | दीपक
घबरा गया | उसने अम्मा का माथा छुआ...ओह्ह अम्मा को तो तेज बुखार था...उसने रानी
को आवाज लगायी | ‘रानी अम्मा को तेज बुखार है | डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा |’ उसने
घबराते हुए कहा | ‘पूरी पेंशन तो ख़त्म हो ही चुकी है अब क्या अपनी कमाई भी इन्ही
के ऊपर खर्च कर दोगे ? मेडिकल स्टोर से दो चार गोलियाँ ले आओ |’ रानी दीपक को आँखें
दिखाते हुए बोली | ‘हाँ ये ठीक रहेगा...’ सहमति से सिर हिलाता हुआ दीपक दवा लेने
चला गया |
दवा से सरोज कुछ ठीक तो हो गयीं लेकिन उनके दिल पर इतनी
गहरी चोट लगी थी वह बहुत तेजी से वृद्धावस्था की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं | शरीर सूखने
लगा गाल पिचकने लगे | उन्होंने किसी से बोलना लगभग बंद ही कर दिया | सेठानी के
यहाँ लगने वाली चौपाल बंद हो चुकी थी | पेंशन हर महीने की एक तारिख को निकाली जा
रही थी | एक बार दीपक ने अम्मा को एटीएम कार्ड बनवा लेने की सलाह दी थी जिसे
उन्होंने अनसुना कर दिया था | शायद इस घर में उनका वजूद सिर्फ इतना था कि उनकी
पेंशन आती थी |
साल दर साल गुजरते गये | अब सरोज की पेंशन भी काफ़ी बढ़
गयी थी | हाँ उसी अनुपात में उनकी झुर्रियां बढ़ गयीं थीं और शरीर भी सूख गया था | उनके
पलंग के बगल में खड़ी छड़ी उनका सहारा बन चुकी थी | अपने बेटे बहू से बात तो कब की
बंद हो चुकी थी बस रिंकी और सोनू संग दिल बहला लिया करतीं | इधर कई दिनों से अम्मा
को बुखार आ रहा था | उन्होंने किसी को इस बारे में बताया भी नहीं | किसी को खास
चिंता भी नहीं थी | वह यादों के सागर में डूबी थीं कि दीपक चिल्लाया...‘अभी तक तुम
तैयार नहीं हुईं...आज पेंशन मिलनी है...’ सरोज को याद हो आया कि आज एक तारीख है |
उसने उठने की कोशिश की लेकिन तपते शरीर ने साथ न दिया और धम्म से बिस्तर पर फैल
गयीं | ‘मैं नहीं जा पाऊँगी...’ उसके काँपते शब्द जैसे ही दीपक के कानों में पड़े
तो वह चिल्ला पड़ा ‘पागल हो गयी हो क्या...महीने भर का खर्चा कहाँ से आएगा फिर...नौटंकी
छोड़ो...मैं दस मिनट में आ रहा हूँ तैयार हो जाओ...’| अम्मा से ज्यादा पेंशन की
चिंता करने वाले अपने लाडले को देख सरोज को वो दिन याद हो आये जब उसके बुखार आ
जाने पर वह रात रात भर उसके बदन पर गीली पट्टी मला करती थी और बाबूजी ऑफिस से
छुट्टी ले लिया करते थे...लेकिन इन बच्चों के लिये हमारी बीमारी नौटंकी से ज्यादा
कुछ नहीं | उनकी आँखों से गिरी आँसुओं की बूंदों ने उनकी हथेलियाँ भिगो दीं | पढ़ी
लिखी सरोज ने दीपक के नामकरण के समय सोचा था कि वह बुढ़ापे में उसके जीवन में नया
उजियारा लायेगा लेकिन उसने तो जैसे उनकी आँखों में काली स्याही उड़ेल दी हो | बहू
बेटे ने उसका आत्मविश्वास अपने पैरों तले कुचल दिया था |
‘क्या अम्मा...अभी भी तुम तैयार नहीं हुईं...’ इस बार
दीपक ने अन्दर घुसते ही अम्मा का हाथ पकड़ खींच ही लिया | सरोज ने मना करने की
कोशिश की लेकिन इससे पहले ही दीपक उसे मोटर साइकिल में बैठा चुका था | अम्मा को
सिर घूमता लग रहा था | तभी रानी आई और वह भी अम्मा को सँभालते हुए पीछे बैठ गयी | अम्मा
की दयनीय हालत देख शायद दोनों को लगा होगा कि अम्मा कहीं रास्ते में गिर गिरा न
जाएँ | सरोज को लगा कि आज तो उसकी अर्थी भी उठने वाली होती तो ये दोनों पहले पेंशन
निकालने उसे बैंक ले जाते...आज एक तारीख थी ना | काउन्टर पर भी दोनों उसके साथ ही
खड़े रहे | कैशिअर ने जैसे ही कैश सरोज की ओर बढ़ाया रानी ने उसे लपकने की कोशिश की
| लेकिन कैशिअर ने उसे झिड़कते हुए पैसे प्यार से अम्मा के हाथों में रख दिये | झिड़के
जाने से सहमी एक किनारे खड़ी रानी को देख सरोज के दिल को बड़ा सुकून मिला | उसने
कैशिअर को हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया |
लेकिन यह पैसा भी कब तक उसके हाथों में रहता | घर
पहुँचते ही उससे छीन लिये गये | वह चुपचाप अपने कमरे में चली गयी | आज रात उनकी
आँखों में नींद नहीं थी | दीपक के बाबूजी की बरसी थी कल | वह उसे इस हाल में देखते
तो बहुत दुखी होते | वह दीवार पर लगी उनकी तस्वीर निहारती रही | न जाने कहाँ से
उसमें अजीब सा आत्मविश्वास आने लगा | शायद दीपक के बाबूजी उसे ऊपर से उसे देख रहे
थे | वह हमेशा की तरह आज भी उसे मुश्किलों
से लड़ने का हौसला दे रहे थे | उसने मन ही मन एक निर्णय लिया |
अगली सुबह वह जल्दी ही उठ गयी | नहा धोकर वह घर के आँगन
में पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी | दीपक के बाहर आते ही बोल पड़ी ‘आज ऑफिस जाते समय मुझे
भी साथ लेते चलना...’ | ‘क्या...कुछ काम है ?’ दीपक ने बेफ़िक्री से पूछा | ‘हाँ,
बैंक से एटीएम कार्ड लेना है...’ सरोज ने बिना उसकी ओर देखे कहा | एटीएम कार्ड...दीपक
को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ...उसने प्रश्नवाचक द्रष्टि अम्मा पर डाली | ‘अब
मुझे बार बार बैंक जाने में दिक्कत होती है...एटीएम रहेगा तो तू ही पैसे निकाल लिया
करेगा...’ सरोज ने एक झटके में दीपक और बहू की मुँह मांगी मुराद पूरी कर दी थी | दीपक
ने अम्मा के पीछे खड़ी रानी को विजयी भाव से देखा |
‘अरे कहाँ थी तुम ? घर में ही रहती हो या...अब चली गयीं
लेती रहना पेंशन...’ दीपक घर में घुसते ही रानी पर भड़क उठा | ‘घर में ही थी...अब
कोई बिना बताये चला जाये तो उसका क्या करें...किसी के पैरों में बेड़ियाँ तो नहीं
डाल रखीं...और काहे घर सर पे उठा रखा है...चली गयी बला टली...यहाँ रह कर कौन सा
तीर मार देती थी...पेंशन की टेंशन छोड़ो एटीएम तो बुढ़िया ने बनवा ही दिया ना...’
रानी के जवाब से दीपक सहमत नजर आया | उसने पर्स देखी...हम्म एटीएम तो उसके पास ही
था | लेकिन अम्मा गयी कहाँ...दीपक ने बैंक
से लाकर उन्हें घर में ही छोड़ा था | वह उनके कमरे में गया...चीजें इधर उधर पलटने
लगा...तभी उसकी नजर मेज पर रखे काग़ज के टुकड़े पर पड़ी |
दीपक ने झट से उसे उठा लिया...’बेटा बहुत दिनों से मुझे
घुटन सी महसूस हो रही थी...मुझे अपना अस्तित्व खतरे में लग रहा था...लगने लगा था
जैसे मैं सिर्फ उस एक तारीख़ के लिये ही बनी हूँ जिस दिन पेंशन आती है | मैं फिर से
अपने अस्तित्व को पुनर्जीवित करना चाहती हूँ | इसीलिये मैं पास ही के वृद्धाश्रम जा
रही हूँ...मिलने की कोशिश मत करना...और तुम्हे मेरी चिंता करने की भी कोई जरूरत
नहीं है | तुम सब को हमेशा की तरह मेरा ढेर सारा आशीर्वाद और प्यार...हाँ पैसे की
जब भी जरूरत पड़े एटीएम से निकाल लेना...’ अम्मा की चिठ्ठी पढ़ते ही दीपक बेसुध सा धम्म
से पलंग पर बैठ गया | रानी ने झटके से उसके हाथों से कागज छीन लिया और एक सांस में
पढ़ गयी | ‘काहे देवदास बने जा रहे हो...तुम सब एक जैसे हो...बैठे बैठे खाना नहीं
पच रहा था महारानी का तो वृद्धाश्रम गयीं हैं हमारी नाक कटवाने...’ अपनी मुट्ठी
में कागज को भींचते हुए पैर पटकती रानी वहाँ से बाहर निकल गयी |
इधर सरोज अपना थैला लिये वृद्धाश्रम में दाखिल हो चुकी
थीं | हॉल में प्रवेश करते ही उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा...’अरे सेठानी तुम
यहाँ ?’ सेठानी मुस्कुराते हुए बोलीं ‘मुझे मालूम था तुम मेरा पीछा छोड़ने वाली
नहीं हो...यहाँ तक चली आयी..’ | ‘चलो अच्छा है अपनी चौपाल यहाँ भी जमेगी...क्यों ?’
सरोज ने अपने पलंग पर थैला रखते हुए कहा | ‘हम्म सो तो है...’ सेठानी ने उनके पलंग
पर बैठते हुए कहा | ‘लेकिन सेठानी तुम यहाँ कैसे ?’ सरोज ने सवाल दागा | ‘ये पैसा
और बुढ़ापा भी ना बड़ी कमीनी चीज है बहन...सबको पराया कर देता है...सेठ जी के गुजर
जाने के बाद मेरे दोनों बेटे विदेश से आये और घर बेच गये...पैसा आपस में बाँट लिया
और मुझे यहाँ छोड़ गये | जिनके सहारे हम बुढ़ापा काटने के ख़्वाब देखा करते थे वो
हमें इस वृद्धाश्रम के सहारे छोड़ गये | बस्स अब तो इसी का सहारा है...’ कहते कहते सेठानी
का गला रुंध गया | उन्होंने साड़ी के पल्लू से अपना चेहरा ढाँप लिया |
थोड़ी देर में संभली तो वही सवाल सरोज का इन्तजार कर रहा
था | ‘तुझे तो पेंशन मिलती है...’ सेठानी ने सरोज की ओर प्रश्नवाचक द्रष्टि से
देखा | ‘हाँ...लेकिन वो मैं समाजसेवा में दान कर देती हूँ...’ नजरें चुराते हुए सरोज
धीमे स्वर में बोली | ‘तो मुझसे क्या किसी ने छीना है मैंने भी तो अपना सब कुछ
जरूरतमंदों को ही दान किया है...’ सेठानी तपाक से बोलीं | दोनों ने एक दूसरे की
आँखों में झाँका मानो उनका झूठ पकड़ लिया गया हो और इसके बाद दोनों के ठहाकों से
हॉल ऐसा गूँज उठा कि इस गूँज ने पल भर में बरसों से उनके दिलों में जम आई निराशा
और हताशा की गर्त को झाड़ दिया |
साल भर होने को था | इस बार नवम्बर की सर्दी भी ठिठुरने
को मजबूर कर रही थी | सरोज अपने पलंग पर रजाई में घुसी थीं | तभी एक आवाज ने उनकी चौंका
दिया ‘अम्मा...’...सरोज ने दरवाजे की ओर घूम कर देखा...रिंकी थी...पीछे से आये
दीपक ने उनके पैर छुए | दोनों अम्मा के ही बगल में बैठ गये | दीपक को देख अम्मा के
चेहरे पर कुछ संतुष्टि के भाव आये | अम्मा ने उससे यूँ ही पूछ लिया...’कैसे आना
हुआ ?’ ‘अम्मा वो पेंशन के लिये जीवन प्रमाण पत्र जमा करना है तो...’ दीपक ने बिना
लाग लपेट के अपनी बात रख दी | जवाब सुन अम्मा का दिल धक्क रह गया | उन्होंने दीवार
निहारते हुए सपाट स्वर में कहा ‘तुम लोगों के लिये मैं अब भी जीवित हूँ क्या ?’ इसके
बाद अम्मा ने दीपक से कोई बात नहीं की | रिंकी के हाल चाल ले ही रही थी कि दीपक उठ
बैठा | उसने रिंकी का हाथ पकड़ा और बिना पीछे मुड़े ही बाहर निकल गया |
अगले दिन भी कड़ाके की ठंड थी | कोहरे ने सब कुछ अपने
आगोश में ले रखा था | लेकिन सरोज शाल ओढ़कर कहीं बाहर निकलने की तैयारी में थीं | वह
निकल ही रही थीं कि सेठानी ने टोका...’अरे इत्ती सर्दी में कहाँ घूमने जा रही हो...’
| ‘जा रही हूँ...अपना जीवन प्रमाण पत्र जमा करने और हाँ उधर से ही बैंक भी जाऊँगी...मेरा
एटीएम भी कल खो गया था ना उसे बंद करवाने...’ इतना कहकर सरोज ने अपनी छड़ी उठाई और सधे
हुए स्वाभिमानी क़दमों से बाहर निकल गयीं |
Story
by: Nitendra Verma
18/11/2017
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबागबान-2
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबागबान-2
Wah nitendra ji, bahut badhiya likha. Shandaar
ReplyDeleteNice story Nitendra.
ReplyDeleteनितेंद्र साहेब ........नमन आपको ....आज का कड़वा सत्य को उजागर करने का सफल प्रयास किया है आपने|
ReplyDeleteदीपक की माँ ने सही कह है-----पैसों का लालच अच्छे अच्छों की सीरत बदल देता है...| आज हम नौजवान की बात सुनकर माता-पिता जीते जी मर जाते है - दीपक का जवाब सुन सरोज को तो जैसे काटो तो खून नहीं | वह जड़ हो गयी |’
एक माँ अपनी औलाद के लिए क्या नहीं करती-दीपक की माँ सरोज के शब्दों में आपने बहुत बड़ी बात कह दी है ------ वो दिन याद हो आये जब उसके बुखार आ जाने पर वह रात रात भर उसके बदन पर गीली पट्टी मला करती थी और बाबूजी ऑफिस से छुट्टी ले लिया करते थे...लेकिन इन बच्चों के लिये हमारी बीमारी नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं |
सेठानी की बात सुनकर तो रूह काँप जाती है| ऐसा सुनकर तो बीएस भगवान से एक ही गुहार लागने को जी चाहता है .......ईश्वर मुझे चलते फिरते उठा लेना|.......सेठानी बिलकुल सही कहती है-‘ये पैसा और बुढ़ापा भी ना बड़ी कमीनी चीज है बहन...सबको पराया कर देता है...सेठ जी के गुजर जाने के बाद मेरे दोनों बेटे विदेश से आये और घर बेच गये...पैसा आपस में बाँट लिया और मुझे यहाँ छोड़ गये | जिनके सहारे हम बुढ़ापा काटने के ख़्वाब देखा करते थे वो हमें इस वृद्धाश्रम के सहारे छोड़ गये | बस् अब तो इसी का सहारा है...
हर माता - पिता अपने बच्चों का नाम रखने से पहले बहुत सोचते हैं.......कहा गया है 'यथा नाम:तथा गुण:' पर यहाँ पर बिलकुल विपरीत है --- दीपक के नामकरण के समय सोचा था कि वह बुढ़ापे में उसके जीवन में नया उजियारा लायेगा लेकिन उसने तो जैसे उनकी आँखों में काली स्याही उड़ेल दी हो | बहू बेटे ने उसका आत्मविश्वास अपने पैरों तले कुचल दिया था | ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,आज राम रावण का काम कर रहा है| .................इस सुन्दर कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई आपको |
बहुत सुंदर कहानी
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