मेरे लिखे पहले उपन्यास "गहरा दलदल" का Sample Chapter 1 आप
Nitendra Verma |
शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है....
अध्याय 1
गाँव की कच्ची पक्की गलियों से निकल रमेश की मर्सिडीज हाईवे पर पहुँच
गयी थी | रमेश ने ड्राइवर से गाड़ी धीमे चलाने का इशारा करते हुए एक नजर पीछे की
सीट पर बैठी पत्नी सरला और बच्ची मुनिया पर डाली | गाँव में पांच दिन बिना एसी के बमुश्किल काटने
वाले सरला और मुनिया कार में एसी चलते ही नींद के आगोश में आ गये थे |
रमेश ने म्यूजिक प्लेयर ऑन कर धीमी आवाज में इंस्ट्रूमेंटल लगा दिया
था | वह भी अब अपनी आँखें बंद करके सीट पुशबैक कर फैल गया | इधर कार सिक्स लेन
हाईवे पर दौड़ रही थी उधर रमेश भी यादों के गलियारों में उतर गया | आज से ठीक पंद्रह
साल पहले अपनी बीवी बच्चे के साथ इसी रास्ते से वह मुंबई जाने के लिये निकला था | तब उसके पास गाड़ी
नहीं थी | उसके पास थी सिर्फ एक गठरी जिसमें दोनों के कपड़े लत्ते, कुछ खाने का सामान
और जरुरत का थोड़ा मोड़ा सामान था |
गाँव में टूटी झोपड़िया में दस जनों के परिवार में सबको रोटी तक नसीब न
थी | बारी बारी से खाना मिलता था | किसी को सुबह खाना मिल पाता था तो किसी को शाम को | बटाई की खेती से
गुजर बसर करते थे | बाबूजी को इन सबसे कोई मतलब न था |
चार भाइयों में तीसरे नंबर का रमेश बहुत सीधा था | गाँव वाले उसे भोला
कहकर बुलाते थे | वाकई बहुत शर्मीला और सीधा लड़का था रमेश | उसके दोनों बड़े भाई
दिन भर पत्ते खेलते और शाम को अपनी घरवालियों से मिलकर एक दूसरे से जमकर झगड़ा करते
| जो गाली गलौज से
होते हुए कई बार हाथापाई तक पहुँच जाता | माँ बाबूजी बीच में पड़ घर से निकालने की धमकी देते तब कहीं जाकर मामला
शांत पड़ता | छोटे भाई के दर्शन तो रात में ही होते | दिन भर आवारा लड़कों के साथ घूमता रहता |
रमेश की शादी हुए अभी महीना भी नहीं बीता था कि भाभियों ने घर की सारी
जिम्मेदारी सरला को सौंप दी | खुद दोनों आराम फरमातीं, इधर उधर गप्पे लड़ातीं और बेचारी सरला अकेले ही दस जनों का चूल्हा चौका
करती | सरला को घर की सबसे छोटी बहू होने के नाते सब छोटी कहते तो बड़ी को बड़ी
और मँझली को मँझली | सरला भी उन्हें बड़ी भाभी और मँझली भाभी ही कहती | भाभियाँ भी कमाल !
दिन भर आपस में चाहे जितना लड़ाई कर लें लेकिन काम के मामलें में एक राय रहतीं | चूल्हा चौके से लेकर
सबके कपड़े धोने तक सब सरला के मत्थे | घर के हालात अब भी वैसे ही थे |
बस समय के साथ सबकी कामचोरी बढ़ गयी थी | सरला तो अक्सर भूखी
ही रह जाती | इसकी चिंता भी किसको थी | सूख के लकड़ी हो गयी थी | गाल पिचक गये थे | बेचारी इतना अत्याचार सहने के बाद भी उफ़ तक न करती | भोले को भोली ही
मिली थी |
रमेश मन ही मन कुढ़ता लेकिन चुपचाप देखने के अलावा कर भी क्या सकता था | तमाम बार मन में आता
कि यहाँ से दूर भाग जाये | लेकिन..लेकिन कहाँ ? न तो उसके पास पैसा था न कहीं कोई जान पहचान | एक दो बार बाबूजी से
कहा भी तो झिड़क दिये |
बाबूजी - ना है मेरे पास पैसा |
और कहाँ जायेगा तू ? हुंह, खाने का ठौर नहीं और
लाट साहब बात करते हैं बिदेस जाने की | अरे दिमाग फिर गया है तेरा...
रमेश फिर भी हिम्मत जुटा कर बोला |
रमेश – लेकिन बाबूजी यहाँ कुछ ठीक नहीं है | सरला दिन भर काम करती है और भूखी सो जाती
है...हमारे पास कुछ काम भी तो नहीं है...
बाबूजी – अरे औरत के पिच्छ्लू...मैं सब समझ रहा...ये तू नहीं बोल रहा...ना...तू
नहीं बोल रहा ये तो तेरी मेहरारू की जुबान है |
है ना ? बिदेश में सब का तेरे स्वागत के लिये थाल सजाये बैठे हैं ? यहाँ कुछ किया धरा
नहीं होता बिदेश जायेंगे...हुंह...
इसके बाद फिर रमेश की हिम्मत नहीं पड़ी | सब यथावत चलता रहा | सरला यूँ ही घर में
खटती रही रमेश मन ही मन कुढ़ता रहा | इस बात को साल भर गुजर गये | अब तो सरला पेट से भी थी | लेकिन किसी को तनिक भी तरस न आया |
घर में किसी को जैसे उसकी चिंता ही न थी | लेकिन रमेश से सब
देखा नहीं जा रहा था | अब वो दूर के कस्बे के ईंट भट्टे में दिहाड़ी पर काम करने जाने लगा था | रोज का बीस रुपया
मिलता जिससे वो सरला के लिये खाने का ढेर सारा सामान ले आता था | जिसे वो ढेर सारा
कहता वास्तव में वो थोड़ा ही होता | लेकिन उसने अपने इत्ते जीवन में खाने का इत्ता सामान एक साथ कभी नहीं
देखा था | कोई कुछ भी कह ले उसके लिये तो वो ढेर सारा ही था |
लेकिन जैसे ही इसकी भनक उसकी भाभियों को लगी सारा सामान उनके कब्जे
में जाने लगा | फिर भी किसी तरह छुप छुपा कर रमेश सरला को और अपने होने वाले बच्चे को
खिलाता रहा | आखिर वह दिन आ ही गया जब वो बाप बन गया | बेटा हुआ था | ख़ुशी के मारे दिल
बल्लियों उछलने लगा | लेकिन अचानक उसे एक झटका सा लगा |
अपने बच्चे को क्या परवरिश देगा वो ? अपने जैसा ही बना
देगा उसे भी ? खाने तक का मोहताज रहेगा वो ? यहाँ आवारागर्दों की फ़ौज बढ़ाएगा ?
नहीं नहीं...वो ऐसा हरगिज नहीं होने देगा | उसे अच्छा माहौल
देगा | अपने जैसा बिलकुल नहीं बनने देगा |
लेकिन कैसे ?
इसका जवाब उसके पास भी नहीं था |
इधर कुछ दिनों से घर में झगड़े बहुत बढ़ गये थे | जान बूझकर सरला को
भी उसमें घसीट लिया जाता | हद तो तब हो गयी जब एक दिन बड़ी भाभी ने रमेश के ही सामने सरला को
झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया | सरला पल्लू में मुंह छिपाकर सिसकती हुई अन्दर भाग गयी | उसी पल रमेश ने
निर्णय ले लिया कि कुछ भी हो जाये अब यहाँ और नहीं रहना | इस बार वह बाबूजी से
साफ़ साफ़ बोल देगा |
रमेश इसी उहापोह में लगा था कि अचानक एक शाम बाबूजी ने उसे बुलाया | बुझे मन से वहां
पहुंचा तो बाबूजी के साथ तीनों भाइयों को देख थोड़ा हैरान हुआ |
बाबूजी – आओ बैठो रमेश
रमेश बाबूजी के सामने जमीन पर बैठ गया |
बाबूजी – देख रमेश तू तो जानता है कि घर की हालत और ख़राब होती जा रही है | बहू भी अभी कमजोर है
और बच्चा भी छोटा है | उनकी जरूरत यहाँ पूरी हो पाना मुश्किल जान पड़ता है | भट्टे से गुजारा न
हो पायेगा |
रमेश समझ नहीं पा रहा था कि बाबूजी कहना क्या चाह रहे थे | भोला जो ठहरा |
बाबूजी – तूने कई बार कहा भी लेकिन हम ही ध्यान नहीं दिए | हम सब सोच रहे थे कि
तुम अपने बीवी बच्चे को लेकर कहीं बिदेश चले जाओ | पैसों का हम कुछ बंदोबस्त कर देंगे |
रमेश की ख़ुशी का ठिकाना न रहा |
उसकी तो जैसे मुँह की बात छीन ली गयी हो |
रमेश – जाना तो चाहता हूँ बाबूजी लेकिन जाऊं कहाँ ?
बड़े भाई – अरे भोले तू ऐसा कर बंबई चला जा |
सुना है बड़ा अच्छा शहर है | अरे वो बगल के गाँव
का एक लड़का सात आठ साल पहले बम्बई गया था |
आज साहब बन गया है | गाड़ी, बंगला क्या नहीं है
उसके पास | बड़ा शहर है वहां तो सबको काम भी मिल जाता होगा | तुझे भी कोई न कोई
काम मिल जायेगा | फिर तेरे पास भी अपनी गाड़ी अपना बंगला होगा | ठाट हो जायेंगे तेरे
|
रमेश की आँखों के सामने लम्बी गाड़ी बड़ा बंगला तैरने लगे |
मंझले भाई – देख रमेश हम तो कुछ कर न पाये |
हम और हमारे बच्चे सब गोबर गणेश हैं | हम चाहते हैं कि कम
से कम तू और तेरा बच्चा तो कुछ करें | दुल्हिन को भी बड़ी समस्या है यहाँ |
रमेश को अपने घर वालों का बदला रूप बहुत पसंद आया था | वो तो कब से यही चाह
रहा था |
रमेश – ठीक है आप लोग कहते हैं तो मैं बंबई चला जाता हूँ | तैयारी करता हूँ
अगले हफ्ते ही निकल जाता हूँ |
बाबूजी – भोला तुझे परेशान होने की जरुरत ना है | हमने सब इंतजाम कर रखा है | ये ले दो सौ रूपये | और हाँ अम्मा ने
झोले में चना सत्तू भर दिया है | रास्ते में भूख भी तो लगेगी ना...
बड़े भाई – तू चिंता छोड़ भोले...बस कपड़े लत्ते भर ले...मैं तो कहता हूँ कल सुबह
की ही बस पकड़ ले...सब पता कर लिया है मैंने |
सुबह 5 बजे ही ठाकुर वाले बस स्टैंड से बस छूटती
है | तू उसी से निकल जा...
रमेश ख़ुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था | अब वो अपने सपनों को
पूरा कर सकता था | जल्द से जल्द ये बात सरला को बता देना चाहता था |
रमेश – मैं ये बात मुन्ने की अम्मा को बता के आऊं ?
बाबूजी – हाँ रे जा बता दे | और सुन जल्दी से तैयारी कर |
रमेश भागा भागा कमरे में घुसा और घुसते ही सरला को सीने से लगा लिया |
सरला – का बात है ? शाम से काहे बौरा रहे हो ?
रमेश – अरी सरला बात ही कुछ ऐसी है | तू सुनेगी तो तू भी बौरा जाएगी |
सरला(रमेश को धकेलते हुए) – अब बात भी बताओगे या बतरंगी ही करते रहोगे |
रमेश(सरला की हथेलियां पकड़ते हुए) – हम लोग बम्बई जा रहे हैं | सब घर वाले तैयार हो
गये हैं | इसी खातिर हमको बाहर बुलाये थे |
सरला(अचम्भे के साथ) – का कहे जा रहे हो ? सोच लो ठीक से, बाद में बखेड़ा खड़ा न हो जाये |
रमेश – अरे, बाबूजी खुद सबके सामने कहे हैं |
हमने तो कुछ कहा भी नहीं था | ये देखो(शर्ट की जेब
से रूपये बाहर निकालते हुए) बाबूजी हमको दो सौ रुपया भी दिए हैं |
सरला – बाबूजी खुद जाने को कहे हैं ? मुन्ने के बाबू हमको कुछ ठीक नहीं लग रहा | कहीं हमको घर से
बाहर करने की तैयारी तो...
रमेश – तुम नाहक परेशान हो रही हो | बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे | हम दोनों यही तो चाहते थे | अब हम बाहर रहेंगे | हम खूब मेहनत करेंगे | तुम दोनों को कोई कमी नहीं होने देंगे | देखना तुम,
वहां हमारा भी एक घर होगा | हम तुम दोनों को
भूखे नहीं रहने देंगे | भरपेट खाना मिलेगा हम सबको | देखना मुन्ने की अम्मा हम बहुत मेहनत करेंगे...
सपने संजोते संजोते रमेश रो पड़ा |
बच्चों के माफिक रो रहा था रमेश | उसके आंसुओं को
सहारा मिला सरला के कन्धों का | आँसुओं से साड़ी का पल्लू भीग गया |
सरला ने उसे रोका नहीं | खुश वो भी थी बस एक
ही चिंता खाये जा रही थी | उसका भोला इतने बड़े शहर में कैसे रहेगा ? जो आज तक अपने गाँव
से बाहर न निकला हो वो कैसे पूरा परिवार बाहर शहर संभाल पायेगा | कुछ भी हो उसे अपने
भोले पर पूरा भरोसा था | वो सब संभाल लेगा |
सरला(कन्धा उचकाते हुए) – अब खाना भी खाओगे या आज ऐसे ही सो जाओगे |
रमेश आँखों को हाथों से मसलते हुए उठ खड़ा हुआ |
रमेश – आटा, दाल तो कुछ था नहीं, बनाया क्या है ?
सरला – कुछ चावल बचे थे वही बनाये हैं,
नमक से खा लो |
दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया |
आज का खाना दोनों को बड़ा स्वादिष्ट लग रहा था | खाने के साथ दोनों
सपने भी बुनते रहे |
खाने के बाद दोनों तैयारी में जुट गये | सामान के नाम पर वैसे तो कुछ नहीं था | फटे पुराने ही सही
भोले ने अपने दोनों जोड़ी कपड़े भर लिये | हालाँकि बार बार सिलने के कारण धागों के उधड़नों की वजह से ये कपड़े कम
और धागों का जाल अधिक लगते थे | सरला के पास तो एक साड़ी तक ढंग की न थी | शादी के समय की
इक्का दुक्का साड़ियाँ बची थीं उन्हें ही भर लिया | एक साल का होने के बावजूद मुन्ने के पास मात्र दो
तीन लंगोट थे जिन्हें सरला ने पुराने कपड़ों से सिल कर बनाया था | सामान रखने में बहुत
ज्यादा समय नहीं लगा |
रमेश सरला को सुबह तड़के उठने की हिदायत देकर फ़र्श पर चटाई बिछा के लेट
गया | लेट तो गया लेकिन नींद आज उसकी आँखों से कोसों दूर थी | आँखों में तो बम्बई
छाया था | बड़ा शहर, बंगले, गाड़ियाँ, चमक दमक ये सब देखने को उतावला हुआ जा रहा था रमेश | अक्सर लोगों को
बातें करते सुना है कि टीवी पर आने वाले सब हीरो हिरोइन वहीँ रहते हैं | हकीकत में तो टीवी
तक नहीं देखी लेकिन हो सकता है किसी हीरो हिरोइन से वहां सामने मुलाकात हो जाये | काम की कोई कमी
रहेगी नहीं | ऐसी बड़ी जगह पर तो काम करने वाले भी कम पड़ जाते होंगे | और हाँ मुंह माँगा
मेहनताना भी मिलता होगा | ये सब सोचते सोचते ही रमेश की आँख लग गयी |
oooooo
----उपन्यास "गहरा दलदल" से लिया गया अंश
लेखक: नितेन्द्र वर्मा
Note: इस सामग्री या इसके अंश को किसी भी रूप में अन्यत्र प्रयोग करना अवैध है |
Nice
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