संवेदना
ऑफिस जाने के लिये रोजाना की तरह तय स्थान पर पहुँच
अपनी मोटर साइकिल सड़क किनारे लगा कर मैं अपने सहकर्मी का इंतजार करने लगा | नवम्बर
के आखिरी दिन थे | घना कोहरा छाया था | ठण्ड भी खूब थी | मैंने खुद को स्वेटर और
जैकेट से ढक रखा था | तभी मेरी नजर पास बैठे एक अधेड़ पर पड़ी | बदन पर फटी कमीज और
पतलून डाले वह व्यक्ति रह रह कर काँप रहा था | ठुट्ठी घुटनों में घुसाये उकडू बैठा
वह जैसे खुद में ही सिमट जाना चाहता था | पैरों में टूटी चप्पल और लम्बे बिखरे बाल
उसकी व्यथा बयान कर रहे थे |

अभी तक उस अधेड़ की हालत पर तरस खा रहा मैं आत्मग्लानि
से भर उठा | उसकी तरफ देखने की भी हिम्मत अब मुझमें नहीं थी | अपनी और उस नवयुवक
की संवेदना में फर्क करना मेरे लिये अब मुश्किल नहीं था | अपने सहकर्मी को साथ
लेकर मैंने खुद पर शर्माते हुए गाड़ी तेजी से आगे बढ़ा दी |
Short Story by: Nitendra Verma
Date: December 10, 2016 Sunday
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