बड़े वाले
सरजी
शिक्षक दिवस ( सितम्बर 5 पर मेरे पहले गुरु को समर्पित )
कक्षा 1 से
लेकर 8 तक मेरी पढ़ाई एक ही स्कूल में हुई | उन आठ सालों की यादें आज भी एकदम ताजा
हैं | इन यादों की अमिट छाप ताउम्र मिट नहीं सकतीं | इसका कारण पढ़ाई न होकर उस
स्कूल के एक अध्यापक हैं जिन्हें हम लोग बड़े वाले सर जी कहते थे | आज का ये
लेख उन्ही बड़े वाले सर जी को समर्पित है |
स्कूल मेरे घर से मात्र 10 मिनट की दूरी पर
था | यहाँ पर आसपास के काफी बच्चे पढ़ते थे | यह स्कूल अपने अनुशासन एवं अच्छी पढ़ाई
के लिए जाना जाता था | बड़े वाले सर जी के मकान में ही स्कूल चलता था | ऊपर वाले तल
पर वह सपरिवार रहते थे जबकि निचले तल पर स्कूल चलता था | स्कूल के सर्वेसर्वा यही
सर थे | प्रिंसिपल भी वही थे | रौबदार व्यक्तित्व , दुबली पतली काया , दमदार आवाज
, चेचक के दागों से भरा चेहरा , ऊपर से नीचे तक सफ़ेद लिबास, घूरती ऑंखें | बाप रे
| उस दौर की फिल्मों के विलेन से कम तो नहीं ही थे | पूरे अमरीश पुरी समझिये आप | हाँ
उनका नाम तो बताना भूल ही गया | नाम है सी पी
सिंह यादव पूरा नाम
चन्द्रपाल सिंह यादव |
हमारा स्कूल दो शिफ्ट में चलता था | कक्षा 5 तक सुबह 8 से 12 जबकि कक्षा 6 से 8 दोपहर 1 से 5 बजे तक | हम लोग अक्सर ही समय से पहले स्कूल पहुँच जाया करते थे | सर हम लोगों को गणित और संस्कृत पढ़ाया करते थे | इमला खूब लिखाते थे | साथ ही पहाड़े भी रटवाया करते थे | तब हम लोगों को 30 तक के पहाड़े मुंहजबानी याद हुआ करते थे | उनका गणित पढ़ाने का अंदाज भी जरा हटके था | वह सवालों को ब्लैक बोर्ड पर लिखाकर हल कराने के बजाये बोल बोल कर हल कराया करते थे | चूँकि इसलिये वाले सवाल आज भी याद हैं | संस्कृत में पाठ का हिंदी अनुवाद वो बेहतरीन करते थे | हम सभी बड़े चाव से संस्कृत पढ़ते थे क्यूंकि इसमें मार खाने की गुंजाईश जरा कम रहती थी | इमला की क्लास पूरे स्कूल की एक साथ लगती थी | जब उनकी डॉल्बी डिजिटल से लैस आवाज पूरे स्कूल में गूंजती थी तो स्कूल का एक एक बच्चा अपनी कलम दवात से साफ़ साफ़ अक्षरों में इमला लिखता दिखाई देता था | इस स्कूल की यह एक ख़ासियत थी कि कक्षा 5 के ऊपर हर छात्र कलम दवात से ही लिखता था | पेन से लिखने की सख्त मनाही थी | इमला लिखाते समय सर जी स्कूल का राउंड लेते रहते थे | बड़ा सावधान रहना पड़ता था | क्या पता आपसे इधर जरा सी गलती हुई और पीछे से लठ्ठ चलना शुरू हो जाये | इमला लिखाने के बाद एक एक की कापी चेक होती थी और गलतियाँ मिलने पर हाथ में प्रसाद मिलता था | प्रसाद की मात्रा गलती की संख्या के अनुपात में हुआ करती थी | उनके खौफ़ के मारे कितनों की तो पैंटें गीली हुआ करती थी |
अक्सर आखिरी घंटे में पहाडा रटाया जाता था |
पूरा स्कूल खड़ा हो जाता था | उसमें से किसी एक को बारी बारी से सर बाहर बुलाते थे
और और किसी एक का पहाड़ा सुनाने को कहते थे | वो पहाड़ा पढ़ता था बाकि उसे दोहराते थे
| अगर ठीक से सुना दिया तो ठीक वरना पिछवाड़ा मजबूत रखो | क्यूंकि डंडे चलाने के
लिये ये सर जी की पसंदीदा जगह थी | उनका मानना था कि पुट्ठे में लठ्ठ चलाने से काम
भी हो जायेगा और ये घाव कोई किसी को दिखा भी नहीं पायेगा | मारते समय वो अक्सर एक
गाना गाते थे ‘बड़ा दुःख दीन्हा तेरे लखन ने...’| यहाँ लखन का मतलब उनके डंडे से था
| शनिवार को पी टी करवाई जाती थी | स्कूल के अंदर तो जगह थी नहीं | हाँ बाहर काफी
जगह पड़ी थी वहीँ पर आकर हम लोग पी टी करते थे | कई लाइनों में हम लोग खड़े हो जाते
थे | सर एक एक को बाहर बुलाते थे और वह सबको पी टी कराता था |
थे
तो वो भी बड़े शौक़ीन | हमेशा चमचमाते झक सफ़ेद कपड़े ही पहनते थे | सफ़ेद के अलावा कोई
और रंग के कपड़े पहने मैंने उन्हें आज तक नहीं देखा | चलते साईकिल से ही थे लेकिन
हर साल पुरानी बेचकर नयी लेते थे | अक्सर वो हम लोगों के घरों में छापेमारी करते
थे | सनकी तो थे ही तड़के 4 बजे ही आ धमकते थे | धीरे से गेट खटखटाते थे अगर आप
बाहर निकले मतलब पढ़ रहे थे और अगर नहीं निकले मतलब सो रहे थे | सर का आदेश साफ़ था
चार बजे हर बच्चा पढ़ते हुए मिलना चाहिए | जो भी सोते हुये मिलते थे उनकी शामत आनी
तय होती थी | जब हम लोग 12 बजे स्कूल पहुचते थे प्रेयर होते ही एक एक का नाम
बुलाया जाता था जो सोते मिले थे | उन्हें बरामदे में एक लाइन में खड़ा कर दिया जाता
था | इसके बाद एक तरफ से जो लठ चलनी शुरू होती थी वो लाइन ख़त्म होने के साथ ही रूकती थी थी | गज़ब की एनर्जी थी उनमें |
लाइन में खड़े पहले बच्चे से लेकर आखिरी तक उसी ताकत, जूनून , और गुस्से का
प्रदर्शन अविश्वश्नीय है | इस सजा के लिए मारते समय वो अक्सर गाना गाते थे
‘कंकरिया मार के जगाये दियो रे...’ मार खा रहे लोग मार खाने के पहले ही कांपने
लगते थे | कुछ तो ओवर एक्टिंग भी कर लेते थे | सर सर गलती हो गई सर...अहह नहीं
सर...अब पढ़ेंगे सर ...रोज पढ़ेंगे सर ....कुछ लोग मार खाने के साथ डांस भी करते थे
| गोया ऋतिक रोशन ने इन्ही से डांस सीखा हो | जो मार से बचे रह जाते थे वो सहमे से
बैठे मन ही मन आनंद लेते रहते थे |
उस ज़माने के अभिभावक भी बहुत अनुशासनप्रिय
हुआ करते थे | हम बच्चों की जान तो दोनों तरफ से आफत में रहती थी | यदि गलती से भी
किसी के घर से शिकायत पहुँच गयी तो हफ्ते भर की ख़ुराक मिलनी तय है | कुछ के
अभिभावक तो स्कूल ही पहुँच जाते थे और अपने बच्चे की शिकायतों की झड़ी लगा देते थे
| बस फिर देखिये सर जी का शक्ति प्रदर्शन अभिभावक के ठीक सामने लाइव | उसके पेंच वहीं कस दिए जाते थे | हाँ उनको अपने
डंडे से बड़ा प्यार था | प्यार से उसे ‘समझावान लाल’ कहा करते थे | वो अपने इलाके
में बहुत विख्यात (पढ़ें कुख्यात) थे | कोई उन्हें मरकहा बैल तो कोई जंगली कहता था |
लेकिन वो कहते थे कि मुझे जितनी गालियां मिलेंगी उतनी ही मेरी उम्र बढ़ेगी |
सिर्फ वो मारते ही थे ऐसा नहीं है | पढ़ाते
भी पूरे मन से थे | पढ़ाने का इतना शौक था उन्हें कि सन्डे हो कोई और छुट्टी
एक्स्ट्रा क्लास हमेशा लगती थी | इसी वजह से हम लोग कभी अपने पसंदीदा प्रोग्राम
नहीं देख पाते थे | आज भी मुझे याद है हर सन्डे सुबह ९ से 10 तक हम लोगों की एक्स्ट्रा क्लास
लगती थी और उसी समय आता था अपने ज़माने का मशहूर धारावाहिक चंद्रकांता | क्लास ख़त्म
होते ही हम सब दौड़ लगाते थे अपने अपने घर की तरफ कि शायद थोड़ा बहुत बचा हो तो
देखने को मिल जाये | लेकिन शायद ही कभी ये मुमकिन हुआ हो | सर गणित का हर एक सवाल
बड़े कायदे से लगवाते थे | छोटी कक्षाओं से ही इतने बड़े बड़े जोड़ घटाना गुणा भाग
करवाते थे कि आज भी हम लोग कैल्कुलेटर का यूज़ कम ही करते हैं | संस्कृत तो इतने मन
से पढ़ाते थे या कहें कि समझाते थे की आनंद आ जाता था | अक्सर वो पढ़ाते पढ़ाते अपनी
यादों में खो जाते थे | अपने ज़माने के किस्से खूब सुनाते थे लेकिन उनमें भी
प्रेरणा होती थी | इसके अलावा भी हम लोगों का बड़ा फायदा ये होता था कि किस्से
सुनाने में इतने मगन हो जाते थे कि समय का कोई ख्याल नहीं रहता था | घंटे दो घंटे
तो आराम से निकल जाते थे | कई बार तो किस्से सुनाते सुनाते छुट्टी का समय हो जाता
था | हम लोग भी बड़े चाव से मन लगा के उनको एकटक देखते हुए किस्से सुनते रहते थे |
बड़ा मजा आता था क्यूंकि शायद यही इकलौता समय होता था जब हम स्कूल में बिना किसी
खौफ़ के बैठे होते थे |
भले ही हमारे बड़े वाले सर जी मारने के लिए
जाने जाते रहे हों लेकिन बिना वजह उन्होंने कभी किसी को नहीं मारा | इसके पीछे
उनका मकसद अनुशासन सिखाना ही था | आज मेरे अन्दर जो भी अनुशासन है वो उनकी ही देन
है | वो हर छात्र को विभिन्न कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए प्रेरित करते रहते
थे | उनकी प्रेरणा की वजह से ही मैंने भी कई स्कूली नाटकों में भाग लिया | आज भी
मेरे घर में पुरस्कार स्वरुप मिली कई प्लेटें, गिलास रखें हैं जिन पर स्कूल का नाम
भी गुदा है | ये शिक्षा एवं हम छात्रों के सुनहरे भविष्य के प्रति उनका जूनून और
समर्पण ही था कि गर्मी हो या कड़कड़ाती सर्दी तड़के हमारे घरों में राउंड लेते थे | तमाम
आलोचनाओं को तारीफ की तरह स्वीकार कर लेना आम इन्सान के बस का नहीं | क्या अनुशासन
की इतनी इन्तहा ठीक है कि वह खौफ़ बन जाये – ये जरूर विवाद का विषय हो सकता है | इन
सबके बावजूद दुबली पतली काया वाले इस इन्सान में ऐसे तमाम गुण मौजूद हैं जो उन्हें
एक अलग ही श्रेणी में ला खड़ा करता है |
आज इतने दिनों बाद मेरे पहले स्कूल की जगह
बदल गई है | स्कूल पहले से छोटा हो गया है | स्कूल के बड़े से बोर्ड की जगह कोने
में लगे छोटे से बोर्ड ने ले ली है | छात्र संख्या नाम मात्र हो चुकी है | उनकी
काया और दुबली हो गयी है | मगर मेरे बड़े वाले सर के तेज और अनुशासन में कोई कमी
नहीं आई है | वही सिर उठा कर चलना , झक सफ़ेद कपड़े और नयी साइकिल | मुझे आज भी उनसे
डर लगता है | कई बार रास्ते में उनके दिखते ही रास्ता बदल देता हूँ | मगर उनके लिए
दिल में सम्मान आज भी उतना ही है | बड़े वाले सर जी आपका ये शिष्य हमेशा आपका ऋणी
रहेगा | मेरे पहले गुरु, पहले शिक्षक, मार्गदर्शक , भविष्य निर्माता आपको शत-शत
नमन – चरण वंदन |
“जीवन में सबसे आवश्यक है मजबूत चरित्र |” - चन्द्रपाल सिंह यादव (बड़े वाले सर जी )
शिक्षक दिवस (
सितम्बर 5 पर मेरे पहले गुरु को समर्पित )
By: Nitendra
Verma
Date: Sept 27, 2014 Saturday
nice
ReplyDeleteAmazing
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