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Friday, April 1, 2016

"लेख" - दोषी कौन

दोषी कौन


हाल की तीन घटनायें वाकई में दिल दहला देने वाली हैं | पहली घटना एक ट्रेन की है | मेरठ के पास ट्रेन में सवार कुछ गुण्डों ने गुंडागर्दी का विरोध करने वाले यात्रियों को इस कदर मारा पीटा कि दो लोगों को जान गंवानी पड़ी | दूसरी घटना दिल्ली की है जिसमें रात में घर के बाहर क्रिकेट खेल रहे एक डॉक्टर को तीस से  पैंतीस लोगों ने घर में घुस कर इतनी बेरहमी से पीटा कि वहीँ उनकी मौत हो गयी | तीसरी घटना फिर एक ट्रेन की है | जबलपुर से गुजर रही एक ट्रेन में एक युवक को तीन चार लोगों ने खिड़की से बांध दिया | हर स्टेशन पर उतर कर उसको पीटते रहे | बेचारा युवक करीब 100 -150 किमी तक चलती ट्रेन की खिड़की से बंधा रहा और मार खाता रहा |
पहली घटना को जरा गौर से देखें | लम्बी दूरी की एक ट्रेन में कुछ अराजक तत्व घुसे | घुसते ही उसमें बैठे बुजुर्ग दम्पति से सीट को लेकर अभद्रता पर उतारू हो गये | कुछ लोगों के बीच बचाव कर बात कुछ संभाली | कुछ देर बाद वही लोग खुलेआम कोच में शराब पीने लगे | जिसका फिर कुछ लोगों ने विरोध किया | उस गुट ने इन लोगों को देख लेने की धमकी दी | मेरठ आते ही इन सबने अपना सामान स्टेशन पर उतार दिया और इसी ट्रेन की दूसरी बोगी में सवार अपने अन्य साथियों को बुला लिया | इनके साथी लाठी, तलवार, पेचकस, हथौड़े, हॉकी जैसे हथियारों से लैस थे | इसके बाद वहां आतंक का जो नंगा नाच हुआ उससे किसी भी इंसान की रूह काँप सकती है | विरोध करने वालों में से एक को इन बदमाशों ने बड़ी बेरहमी से मारा | उसके पेट में पेचकस घुसेड़ दिया, सिर पर हथौड़े चलाये गये और तब तक चलाये गये जब तक वह मर नहीं गया | एक सरदार को चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया | वारदात को अंजाम देने के बाद चेन पुलिंग करके सब इत्मिनान से भाग गये |
अब दूसरी घटना को समझते हैं | भारत-बांग्लादेश के मैच में भारत की जीत की ख़ुशी में रात में अपने घर के बाहर अपने बच्चे के साथ क्रिकेट खेल रहे दांतों के डॉक्टर को शायद ही मालूम होगा ये उनकी जिन्दगी की आखिरी रात है | बैट से निकली बॉल वहां से गुजर रहे एक युवक की स्कूटी से टकरा गयी | इस बात पर उस युवक को इतना गुस्सा आ गया कि डॉक्टर के सॉरी कहने के बाद भी उसने अपने तीस पैंतीस साथियों को बुला लिया | इन लोगों ने मिल कर डॉक्टर को इतना पीटा कि वहीं उनकी मौत हो गयी | उनका चेहरा भी पहचानना मुश्किल था |
वहीं तीसरी घटना में कुछ लोगों ने एक युवक को ट्रेन की खिड़की से बांध दिया | उसे जमकर पीटा और इसके बाद कोच में घुस गये | ट्रेन चलती रही और युवक बंधा रहा | अगला स्टेशन आया वही लोग नीचे उतरे और उस युवक को फिर पीटा | करीब 100–150 किमी तक युवक चलती ट्रेन में ऐसे ही खिड़की से बंधा लटकता और मार खाता रहा | उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने उन लोगों की बोतल से पानी पी लिया था |
इन तीनों घटनाओं में कुछ समानताएं और कुछ अंतर हैं | पहली समानता यह है कि इन तीनों घटनाओं में किसी की आपस में पुरानी दुश्मनी या रंजिश नहीं थी | ये वारदातें बेहद मामूली कहासुनी का परिणाम हैं | दूसरी ये कि तीनों ही घटनाएँ भीड़भाड़ वाले सार्वजानिक स्थानों पर हुईं | और मूलभूत अंतर ये है कि तीनों में से केवल एक घटना में ही आसपास मौजूद लोगों ने मारपीट कर रहे दबंगों का विरोध किया | मेरठ में घटी घटना में दबंगई का विरोध कर रहे लोगों में से दो को अपनी जान गंवानी पड़ी |
यहाँ यह प्रश्न उठाना लाजमी है कि बाकी दो घटनाओं में आसपास मौजूद लोगों ने विरोध क्यों नहीं किया ? लेकिन क्या इस विरोध का अंजाम भी मेरठ वाली घटना में परिणत नहीं हो हो सकता था | यह मुद्दा अपराधियों, अपराध होते हुए चुपचाप देखते रहने वाले मूक दर्शक और अपराध को नियंत्रण में रखने की जिम्मेदार संस्थाएं तीनों को झकझोरने वाला है | उपरोक्त तीनों घटनाओं में दोषियों में कई नवयुवक, किशोर और नाबालिग शामिल थे | यह साफ इशारा करता है कि आज के युवकों में धैर्य व संयम नहीं रह गया है | इन्हें अपने खिलाफ़ कुछ भी सुनना, देखना बर्दाश्त नहीं है | इसके लिये वो किसी की सरेआम हत्या करने से भी गुरेज नहीं करते | यह समाज के लिये अत्यंत खतरनाक स्थिति है |
इसका दूसरा पहलू भी है | जब भद्र समाज को बिगड़े समाज के साथ मिलाने की कोशिश की जाएगी तो परिणाम दिल्ली वाली घटना ही होगी | इस घटना में डॉक्टर को मारने वाले वहीँ कालोनी के पास झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बिगड़े नवयुवक व नाबालिग थे | इन अवैध झुग्गी झोपड़ियों को हटाने के बजाय सरकार अपने वोट बैंक के चक्कर में इन्हें स्थायी करने की कोशिश में लगी रहती है |
अपराध होते देख उसका विरोध करना चाहिए या चुपचाप देखते रहना चाहिए, ये आज के समय में किसी को भी विचलित कर सकता है | यदि कोई विरोध करे तो जान का खतरा भी है | लेकिन चुप बैठना भी कहाँ की मानवता है | यदि दिल्ली में डॉक्टर के घर के आसपास के लोग विरोध करते तो क्या इतनी बड़ी घटना घट सकती थी | सबने गुण्डों को ललकारने के बजाय घर में घुसे रहना ज्यादा उचित समझा | या जबलपुर में घटी घटना में यात्री चलती ट्रेन में खिड़की से बंधे युवक की कोई मदद नहीं कर सकते थे | कमाल है कि न ही  कोई चेन पुलिंग कर पाया, न तो स्टेशन में अधिकारियों को सूचित कर पाया | हैरत है कि दूध और दवाई जैसी चीजों के लिये रेल मंत्री को ट्वीट करने देश में जान बचाने के लिये जूझ रहे आदमी की मदद के लिये कोई कुछ नही कर पाया | मेरठ केस में किसी अन्य यात्री के लिये दबंगों का विरोध करने में अपनी जान गंवाने वाले दोनों आदमी उचित सम्मान के हकदार हैं | सरकार को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए |
जिस समय ये अपराध खुलेआम अंजाम दिए जा रहे थे उस समय हमारी पुलिस, रेलवे पुलिस कहाँ थी और क्या कर रही थी | ट्रेन में घटे दोनों केस में एक बात साफ़ है कि भारत में आज भी ट्रेनें भगवान भरोसे ही चल रही हैं | सुरक्षा जैसी चीज कहीं नजर नहीं आती | जबलपुर केस में तो साफ़ पता चला कि उस ट्रेन में न तो टीटीई और न ही किसी सुरक्षाकर्मी की ड्यूटी थी | हम तमाम जरूरतों के लिये रेलमंत्री को ट्वीट तो कर सकते हैं लेकिन ऐसी आपात स्थिति में हमें किसके पास जाना है या क्या करना है, ये आज तक रेलवे खुद नहीं जान पाया | चेन पुलिंग बिल्कुल भी सही विकल्प नहीं है क्योंकि ऐसा करने से न सिर्फ अपराधी सचेत हो जाते हैं बल्कि यात्रियों की जान का भी खतरा हो जाता है | बात तो हम डिजिटल इंडिया की करते हैं लेकिन बदकिस्मती से हमारे रेलवे स्टेशन आज भी बिना सीसीटीवी के सूने पड़े हैं |
बात न्याय व्यवस्था की | आज भी हमारे देश में हजारों लाखों मुक़दमे लंबित पड़े हैं | न्याय मिलने में देरी भी एक अन्याय है | मुकदमें में फंसे लोगों की जिन्दगी कोर्ट के चक्कर लगाने में ही गुजर जाती है | कई बार तो लोग परलोक भी सिधार जाते हैं निर्णय के इंतजार में | हमारे देश में न्यायालयों की संख्या पर्याप्त नहीं है | साथ ही जरुरत है न्याय व्यवस्था को और सख्त व त्वरित बनाने की | जब तक समाज में सजा का भय नहीं होगा तब तक अपराध यूँ ही बेलगाम बढ़ते रहेंगे |
इन तीनों घटनाओं ने जहाँ आम आदमी के दिल को दहलाया है वहीँ सभ्य समाज की परिकल्पना को चोट पहुंचाई है | हमें सामाजिक ताने बाने के स्वरुप पर फिर से नजर डालने की जरुरत है | इन घटनाओं के लिये आखिर दोषी किसे ठहराया जाये – अपराध करने वालों को, अपराध होते हुए मूकदर्शक बने लोगों को या फिर अपराध नियंत्रण के लिये जिम्मेदार संस्थाओं को | निश्चित रूप से इसका जवाब ढूंढना आसान नहीं होगा |

  Lekh By : Nitendra Verma    
 Date: March 31, 2016 Thursday

      

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