Nitendra Verma |
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अधूरी कहानी..फिर से
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अख़बार में घुसे पड़े हो...कितनी देर
से डोरबेल बज रही है देख भी नहीं सकते कौन है...’ बड़बड़ाते हुए निवेदिता की मम्मी प्रेमा
ने दरवाजा खोला | सामने हाथ जोड़े खड़े दो अनजान लोगों को देख वो अचकचा गयीं | करीब साठ
पार दोनों पति पत्नी लग रहे थे | प्रेमा असहजता से हाथ जोड़ते हुए बोलीं ‘जी, मैंने
आप लोगों को पहचाना नहीं..’ | ‘जी बहन जी हम कभी मिले ही नहीं तो पहचानने का सवाल
ही नहीं पैदा होता...’ सामने सज्जन मुस्कुराते हुए बोले | उनकी मुस्कुराहट में एक अजीब
सा अपनापन था | ‘वैसे मेरा नाम रमन और ये मेरी धर्मपत्नी सुशीला हैं...हूँsss...अब
अगर आपकी इजाज़त हो तो हम अंदर बैठ कर बात करें ?’ उन सज्जन ने उसी मुस्कराहट के
साथ अपनी बात पूरी की | ‘जी बिलकुल...प्लीज आप लोग अंदर आइये...’ प्रेमा ने उन्हें
ससम्मान आमंत्रित किया |
अब तक अख़बार में आँखें घुसाये
निवेदिता के पापा हरी बाबू घर में घुस आये अजनबी मेहमानों को देख सतर्क हो गये |
‘जी आप लोग??’ अख़बार मेज पर रख सुबह सुबह आये मेहमानों के सामने बैठते ही उनके
यहाँ होने के औचित्य पर सवालिया निशान लगा दिया | ‘जी दरअसल हम रिश्ते की बात करने
आये हैं...’ उन सज्जन की पत्नी उनकी हैरानी दूर करते हुए सीधे मुद्दे पर आ गयीं | ‘रिश्ता??’
प्रेमा और हरी बाबू ने एक दूसरे की आँखों में देखा | प्रेमा किचेन में घुस गयीं |
तब तक हरी बाबू राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय खबरों की विवेचना में लग गये | रमन को
भी इनमें गहरी रूचि थी |
‘लीजिये आप लोग चाय पीजिये...’
विमर्श की गहराइयों में उतर चुके हरी बाबू और रमन को प्रेमा ने टोका | ‘इनको तो
बस्स...न्यूज़ चैनल समझिये...जैसे सारी दुनिया का बोझ इनके ही सिर रखा है...’
प्रेमा ने सुशीला की ओर रुख करते हुए चर्चा बढ़ाई | ‘तो ये कौन से कम हैं बस सुबह
इनके जैसों की चौपाल जो लगती है तो सीधे शाम को घर की याद आती है...’ सुशीला ने भी
रमन का परिचय करवा ही दिया | ‘क्या करें भाई साहब सालों से तो इनकी ही सुनते आ रहे
हैं...अब तो कान की मेमोरी भी फुल हो चुकी है...बाहर जिन भाइयों से चौपाल लगती है
वो सब भी अपनी अपनी बीवियों के ही मारे हैं...वो कहते हैं ना भाई साहब कि बाँटने
से दुःख कम होता है..’ रमन का इतना कहना था कि पूरा घर ठहाकों से गूँज उठा |
’
‘जी वो आपकी बिटिया नहीं दिखाई दे रही..’ सुशीला ने चारों
तरफ नजरें घुमाते हुए कहा था | अपने कमरे में घुसी सारी बातें सुन रही निवेदिता ने
ये सुनते ही खुद को और सिकोड़ लिया | ‘कल से उसकी तबियत कुछ ख़राब है...अपने कमरे
में आराम कर रही है..वैसे आपको उसके बारे में किसने बताया ?’ प्रेमा ने उत्तर के
साथ प्रश्न भी दाग दिया | ‘अजी हीरे की चमक कब तक छुपायी जा सकती है...’ रमन ने
बात घुमा दी | ‘क्या है बहन जी कि हमारा एक लड़का है जिसके लिये हम आपकी बिटिया का
हाथ मांगने आये हैं...’ सुशीला ने बिना लाग लपेट के अपनी बात रख दी | प्रेमा और हरी
बाबू एक पल को सन्न रह गये | दोनों ने एक दूसरे की आँखों में झाँका | उनके चेहरे
पर अब तक पसरी मुस्कान ने अचानक ही गंभीरता का लबादा ओढ़ लिया | सुशीला और रमन कुछ
समझ पाने में नाकाम हो रहे थे | पहले उन्हें लगा था कि वो बाहर रहने वाले उनके
छोटे इंजीनिअर बेटे के लिये रिश्ता लाये हैं | कमरे में सन्नाटा भर गया |
‘हम आप लोगों की भावनाओं की कद्र करते हैं लेकिन...’ इस
अधूरे वाक्य से हरी बाबू ने चुप्पी तोड़ी | ‘..लेकिन क्या भाईसाहब...अगर आप ठीक
समझें तो हमें बता सकते हैं...’ रमन ने चुप्पी के पीछे छिपे राज को जानने की हड़बड़ी
दिखाई | ‘जी वो हमारी निवेदिता बचपन से ही दोनों पैरों से विकलांग है...चल फिर
नहीं सकती...’ इतना कहते ही प्रेमा ने सिसकियाँ पीते हुए अपना मुँह पल्लू से छिपा
लिया | हरी बाबू भी चश्मा उतार कर नम हो आई आँखें पोंछने लगे | रमन और सुशीला को
तो जैसे काटो तो खून नहीं | ‘माफ़ करियेगा, हमारा इरादा आपको दुःख पहुँचाने का नहीं
था...’ सुशीला ने भारी हो आये माहौल को हल्का करने की कोशिश की | ‘बस्स हमारी
बिटिया तो ऐसे ही खुश है..वो शादी नहीं करना चाहती..और हम उस पर कोई दबाव भी नहीं
बनाना चाहते..’ हरी बाबू ने गहरी सांस ली थी | ‘सो तो है लेकिन फिर भी हम अपने
बेटे की फोटो और बायोडाटा यहीं छोड़े जा रहे हैं अगर कुछ विचार बने तो जरूर
बताइयेगा..’ कुछ रूखेपन के साथ ही रमन ने विदाई लेनी चाही | ‘खाना हम जरूर खाते
लेकिन हमें आज ही उन्नाव वापस जाना है, यहाँ कानपुर में एक परिचित के यहाँ रुके थे...अब
इजाजत दें...’ रमन ने हरी बाबू के खाने के आग्रह को अस्वीकार करते हुए तेजी से दरवाजे
की ओर रुख कर लिया |
‘ये पसंद थी तुम्हारे साहबजादे की ?’ वापसी में रमन
सुशीला पर भड़क उठे |
-‘अब उसे क्या मालूम कि लड़की..’
-‘वाह जनाब प्यार भी कर बैठे और ये भी नहीं मालूम कि
लड़की अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं..इसे कहते हैं अँधा प्यार..’
-‘लेकिन अब रचित को क्या बतायेंगे?’
-‘अरे अच्छा हुआ इन लोगों ने पहले ही हकीकत बता दी
वरना...और उसे क्या बताना है जब उन्होंने ही मना कर दिया तो हम क्या कर सकते
हैं...और मान भी जाते तो क्या इस लड़की से ?’
रास्ते भर दोनों बहस में लगे रहे |
दरवाजा खोलते ही रचित ने प्रश्नवाचक मुद्रा में सुशीला
को देखा | सुशीला के चेहरे पर उतर आये नकारात्मक भावों ने उसे अन्दर तक झकझोर दिया
| वह सीधे अपने कमरे में घुस गया | दिन भर की ख़ुशी एक पल में काफ़ूर हो गयी | कितनी
मेहनत से उसने मम्मी को और फिर मम्मी ने पापा को वहां जाने के लिये मनाया था |
बहुत हिम्मत जुटाई थी तब जाकर मम्मी को उस लड़की के बारे में बता पाया था | कानपुर
से आपस आ जाने के बाद भी वह कभी खिड़की से झांकती उस मुस्कान को भुला नहीं पाया था
| एकदम निश्छल, निर्दोष, पवित्र मुस्कान...उसकी मुस्कान उसे गंगा में डुबकी लगाने
सा एहसास देती |
पार्क से खिड़की पर बैठी ख़ूबसूरती को निहारती एक जोड़ी
आँखें कब और कैसे उसकी मुरीद हो गयीं थीं वह जान ही नहीं पाया था | पहली चिठ्ठी...नहीं चिठ्ठी नहीं प्रेम पत्र...ओह्ह...पसीने
पसीने हो गया था...रात भर लिखता और कागज फाड़ता रहा तब जाकर तीन लाइन लिख पाया था |
प्रेम पत्र लिखना अलग बात है और उसे देना अलग ये बात भी वो उस दिन ही जान पाया था
| हफ्ते भर तो जेब में ही पड़ी रही | रोज सोचता आज तो दे ही दूंगा...लेकिन एक
अनजाना सा डर उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल देता | लेकिन उस दिन उसने ठान लिया
था...जब तक लेटर दे नहीं देगा घर नहीं लौटेगा | घंटे भर छुप कर इंतजार करने के बाद
जैसे ही वो खिड़की बंद करने को हुई क्या दौड़ लगायी थी उसने...अपने जीवन की सबसे तेज
दौड़ | रात भर सो नहीं पाया...जाने क्या सोच रही होगी...शायद कागज पर उकेरे गये उसके
जज्बातों की चिन्दियाँ अब तक तो हवा में उड़ रही होंगी..बुरे सपनों से भरी रात में न
जाने कितनी बार चौंक कर जाग उठा था |
अगली शाम खासा घबराया था वो | पार्क जाने से पहले कई
बार सोचा | कहीं कुछ उल्टा हो गया तो | अगर उसने घर वालों को ये बात बता दी तो ? कहीं
पार्क में ही उसका मुंडन संस्कार न हो जाये...लेकिन उसे तो प्यार हो गया था...उसने
डर को काबू में किया और चल दिया था अपने जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा का परिणाम जानने
| उसका कागज लहराकर मुस्कुराना...आह्ह..कई दिनों से उहापोह में जी रहे रचित की जान
में जान आई थी | फिर उसकी शरारत भरी खिलखिलाहट...दिल तो पहले ही दे बैठा था बचा
दिमाग वो भी उसके हाथ से जाता रहा | इतनी ख़ुशी उसे आज तक नहीं हुई थी...हाथों को
जोर से झटका दिया था |
‘मेरा बेटा उदास क्यों है? क्या बात है?’ सुशीला अँधेरे
से घिर आये कमरे की लाइट ऑन करके रचित के बगल में बैठ गयीं | ख्यालों में खोया रचित
चुप रहा | ‘बेटा हमने तो अपनी बात रखी लेकिन उन लोगों ने ही साफ़ मना कर दिया | असल
में वो लड़की..’ अचानक सुशीला रुक गयीं ‘..बेटा वो लड़की ही शादी नहीं करना चाहती..’
सुशीला ने अपनी बात पूरी की | रचित ने माँ की ओर कातर द्रष्टि डाली | उसका डूबा सा
चेहरा देख सुशीला का दिल काँप उठा | ‘तू चिंता न कर बेटा...उन लोगों ने थोड़ा समय
माँगा है हो सकता है उनका विचार बदल जाये..बहुत प्यार करता है मेरा बेटा
उससे..हाँ..तेरा प्यार जरूर रंग लायेगा...’ सुशीला ने रचित को सीने से चिपका लिया
| रचित माँ से चिपट कर रो पड़ा | भावुक हो आई सुशीला ने अपने हाथों से उसके बालों
को सहलाते हुए उसके आँसू पोंछ दिये | ‘चल खाना खा ले चल के..छोटे बच्चों की तरह
बुल्के बहा रहा है..’ सुशीला ने उसके गाल पर मीठी सी चपत लगाते हुए उसे बाहर खींच
लिया |
‘क्या मेरी बच्ची आज कमरे में ही कैद रहेगी ?’ निवेदिता
के हाथों में फँसी किताब एक किनारे रख प्रेमा बगल में बैठ उसके बिखरे बाल सहेजने
लगी | ‘मम्माsss’ ममता की छाँव
पाते ही निवेदिता के आँसुओं का बांध टूट पड़ा | गोदी में छुप कर देर तक सुबकती रही
| बच्ची की बेबसी देख प्रेमा की आँखें भी छलक आयीं | किसी तरह खुद को संभाला | आँसुओं
के समन्दर में निवेदिता की लाल पड़ चुकी आँखों ने उन्हें हिला दिया | उन्होंने झट
से अपना पल्लू खींचा और आँसुओं से चमकते हुए उसके गालों को पोंछ डाला | ‘मत रो
मेरी बच्ची...’ प्रेमा ने उसके माथे को हौले से दबाते हुए चुप कराने की असफल कोशिश
की | ‘मुझे शादी नहीं करनी मम्मा...’ उसकी सिसकियाँ के साथ जुड़ चुकी हिचकियों ने
माहौल को भयावह बना दिया | इस बार प्रेमा कुछ नहीं बोलीं | निवेदिता की सिसकियाँ गुजरते
पलों के साथ धीमी पड़ गयीं | उसके बालों पर प्रेमा की बलखाती उँगलियों के ममतामयी
स्पर्श ने उसकी सिसकियों को सोख लिया था |
‘मालूम है मेरी बच्ची...ठहरे हुए पानी में अक्सर कीड़े
पड़ जाया करते हैं...समझदारी बहाव के साथ बहने में ही होती है...जब मैं छोटी थी ना
तब मैं भी सबसे यही कहती थी...मुझे शादी नहीं करनी..डर लगता था सोचकर क्या होगा
शादी के बाद...हर लड़की के साथ होता है...तू खुद को सबसे अलग क्यों समझती है? इसलिये
कि तू चल नहीं सकती...पैरों से विकलांग है...इस दुनिया में सबको सब कुछ नहीं
मिलता...लेकिन याद रख जिनको सब कुछ नहीं मिलता उन्हें ऊपर वाला औरों से कुछ ज्यादा
देता है...’ प्रेमा हीन भावना के अंधियारे से घिरी निवेदिता को आत्मविश्वास की
रोशनी दिखाने की भरसक कोशिश कर रही थी | ‘शादी करेगी???’ प्रेमा ने निवेदिता के
चेहरे को अपनी ओर घुमाते हुए उसकी आँखों में झाँका | ‘कौन करेगा मुझसे शादी???’ नजरें
एक ओर घुमाते हुए निवेदिता धीरे से बोली | ‘भगवान ने तेरे लिये भी किसी न किसी को
जरूर बनाया होगा | मुझे यकीन है कहीं न कहीं वो भी पूरी शिद्दत से तेरा इंतजार कर
रहा होगा...’ सामने की मेज पर एक फ़ाइल रखते हुए प्रेमा मुस्कुराते हुए बोलीं | निवेदिता
हैरान थी | ‘इसमें लड़के की फ़ोटो है...देख लेना शायद यही हो...वो...’ प्रेमा की
शरारती मुस्कान ने बरबस ही निवेदिता के होंठों पर हँसी तैरा दी |
प्रेमा की बातों ने निवेदिता को कुछ संबल दिया था | खाना
खाकर कमरे में आई तो सहसा व्हील चेयर मेज से सटा दी | कोने में रखी डायरी उठाई और
उसके कवर पर ऊँगली फिरा दी | ऊँगली पर जम आई धूल की मोटी परत इस बात का सबूत थी कि
डायरी लम्बे समय से नहीं खोली गयी थी | उसने मेज पर रखा कपड़ा उठाया और उस जमी धूल
को साफ़ कर डाला | उसने डायरी खोल दी...उसके हाथों ने ख़ुद ब ख़ुद ही कलम उठा ली...उसकी
कलम स्वतः चलने लगी ‘आज तुमने मुझे फिर से लिखने को मजबूर कर दिया | मैं तुम्हे
कभी याद नहीं करना चाहती थी लेकिन ना जाने तुम में क्या जादू है...लौट लौट कर आ
जाते हो | मुझे मालूम है तुमने कितने दिनों तक मेरे जवाब का इंतजार किया था | मगर मैंने
तुम्हे कोई जवाब नहीं दिया | तुम्हारा रोज पार्क में आना और घंटों बैठे रहकर एकटक मेरी
बंद खिड़की निहारते रहना...मैं ज़ार ज़ार रोती रही...बंद खिड़की से तुम्हारी बेचैनी देख
मेरा दिल छलनी होता रहा...तुम्हारे और मेरे बीच कोई था तो बस ये बंद खिड़की...तुम
मुझे भले ही न देख पाते रहे हो लेकिन मैं तुम्हे तब भी रोज देखती रही...इस बंद
खिड़की से...तुम मुझसे शादी करना चाहते थे ना ? ये तुम्हारा प्रेम है या
आकर्षण...हम्म...माफ़ करना मैं ‘है’ का प्रयोग कर रही हूँ | लेकिन फिर भी तुमने तो
सिर्फ मेरा चेहरा देखा मुझे नहीं...जिस दिन मुझे देख लोगे शायद दुनिया के बाकी
लोगों की तरह तुम्हारे दिल में भी मेरे लिये दया, सहानुभूति या शायद नफ़रत ही रह
जाएगी | मैं तुम्हारे काबिल नहीं इसीलिये मैंने वो खिड़की फिर कभी नहीं खोली | सोचा
खिड़की के उस पार प्रेम प्रस्ताव लिये तुम्हारी आँखें मुझे कमजोर न कर दें बस्स...ऐसा
नहीं है कि सिर्फ तुम ही मुझसे प्यार करते हो...सच तो ये है कि...’ निवेदिता कुछ
पल के लिये रुकी, आँखें मूँद लीं...और इस बार आँखें खुलीं तो असमंजस के तमाम बदल
छंट चुके थे...कलम फिर से चलने लगी ‘...मैं भी तुमसे..तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...आज
भी...आई लव यू रचित...आई लव यू...’ अपनी भावनाओं के गुबार को डायरी में बिखेर कर
वह खुद को बेहद हल्की महसूस कर रही थी | उसने गहरी साँस छोड़ते हुए अपनी पीठ सीट से
टिका दी |
’
ऑफिस से घर आते ही रचित अपने कमरे में घुस गया | बाथरूम
में घुसा तो हथेलियों को साबुन से रगड़ रगड़ कर धुलने लगा | बदहवास सा देर तक रगड़ता
रहा फिर ध्यान से अपने हथेलियों को देखने लगा | फिर न जाने क्या भूत सवार हुआ नाखूनों
से हथेलियाँ खुरचना शुरू कर दिया | कुछ ठहरा हथेलियों को निहारा और हथेलियों में
चेहरे को भर फूट फूट कर रोने लगा | प्रेमा ने चाय उसकी मेज पर रख दी थी | कमरे में
न पाकर आवाज लगा दी | उसने जल्दी से खुद को संभाला और बाहर आ गया | वो चाय रखकर
चली गयीं थीं | कुर्सी पर बैठते ही उसने अपनी दोनों हथेलियाँ मेज पर फैला दीं | उन
पर फैली तमाम रेखाओं को गौर से देखने लगा | ‘क्या तुम इन रेखाओं में कहीं भी नहीं?
मुझसे ऐसा कौन सा पाप हो गया जो तुम इसमें नहीं...मैं नहीं मानता...तुम हो...इन्ही
रेखाओं में कहीं छुपी हो बस्स मैं देख नहीं पा रहा...लेकिन क्या जरूरी है कि जैसा
मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ वैसा ही तुम भी सोचती हो ? कतई नहीं | वैसे भी
मुझमें ऐसा कुछ खास भी नहीं कि तुम जैसी लड़की मुझ पर मर मिटे...और...और अब तक तो तुमने
मेरा फ़ोटो के साथ भेजा गया लेटर भी पढ़ लिया होगा... आह्ह’ अनजान गुस्से से उसने एक
जोरदार मुक्का मेज पर दे मारा | मुक्के से कांपती मेज पर रखा चाय से भरा कप
लड़खड़ाता हुआ लुढ़क गया | चाय मेज के दूसरे छोर तक धार बनाती हुई अभी तक नीचे फैल
रही थी | |
रचित ने दोनों कोहनियों को मेज पर रख उँगलियाँ माथे से
सटा दीं | उसका दिल मानने को तैयार ही नहीं था कि वो उससे प्यार नहीं
करती..अगर...अगर प्यार न करती तो उसने उसका दिया पहला लेटर खिड़की से फेंका क्यों
नहीं..पार्क की उस बेंच और खिड़की से निहारती उन आँखों के बीच लहराती प्रेम तरंग
में मधुरता, मोहकता झूठ नहीं हो सकती..वो जरूर उसे मैसेज करेगी | फ़ोटो के साथ भेजे
लेटर में इस बार उसने अपना नंबर भी दे ही दिया था | अनिश्चय के भँवर में फंसे रचित
ने कस कर आँखें भींच ली |
अँधेरे कमरे में बिस्तर पर औंधी पड़ी निवेदिता भी कुछ
ऐसे ही भँवर से घिरी थी | उसके जज्बात सपनों की उड़ान भरते लेकिन वास्तविकता
उसकी उड़ान को बीच में धराशायी कर देती | एक बारगी तो मन किया की मम्मी को सब बता
कर आपना बोझ हल्का कर ले लेकिन तभी रचित का मासूम सा चेहरा उसकी आँखों के सामने झाँकने
लगा | नहीं वह इतनी ख़ुदगर्ज भी नहीं...कि अपना अपाहिजपन किसी और पर लाद दे | ‘ये
क्या फिर अँधेरे में बैठी है...’ अन्दर आये हरी बाबू ने लाइट जला दी | निवेदिता
चुप ही रही...हरी बाबू उसकी हथेलियाँ सहलाने लगे...’अंधेरों से इतना प्यार भी न कर
मेरी गुड़िया कि उजालों से ही डर लगने लगे..’ | ‘ऐसी कोई बात नहीं है पापा...बस्स
थोड़ा सिर दर्द हो रहा है..’ बुझे से स्वर में निवेदिता बोली | ‘ला बाम से मालिश कर
दूं..’ हरी बाबू के बाम उठाने से पहले ही निवेदिता ने इशारे से उन्हें मना कर दिया
| ‘अच्छा चल, मम्मी तेरे मनपसन्द आलू के परांठे बनाने जा रही हैं..गरमा गरम खायेगी
तो तेरा सिर दर्द भी ठीक हो जायेगा...’ हरी बाबू ने ज़िद सी की | ‘पापा आप चलिये
मैं फ्रेश होके आती हूँ’ बैठते हुए निवेदिता ने सब ठीक होने का भरोसा दिलाया |
हरी बाबू बाहर जा चुके थे
| निवेदिता ने भी थोड़ी देर बाद
व्हील चेयर बाहर की ओर मोड़ी लेकिन दरवाजे पर पहुँचने से पहले ही एक अजीब सा खिंचाव
उसे मेज की ओर ले आया | इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती उसके हाथों में वो फाइल थी
जिसे प्रेमा रख गयीं थीं | फाइल खोलते ही एक लिफ़ाफ़ा बाहर गिरा | उसने कांपते हाथों
से लिफ़ाफ़ा खोला...अगले ही पल अंदर रखी फोटो उसके हाथों में थी | ‘आह्ह...ये नहीं
हो सकता...’ उसका दिल अचानक ही धौंकनी की तरह धड़कने लगा | उसने आँखें भींच लीं |
सिर को आसमान की ओर उठाकर बंद आँखों से ही कुछ सवाल किये..आँखों से निकले आँसुओं का
एक टुकड़ा उसकी ठुट्ठी से होते हुए उस फोटो पर जा गिरा...उसने अपनी आँखें खोल दीं..चुन्नी
खिंची और झट से रचित के गालों पर गिर आई उस बूँद को पोंछ दिया | रचित की फोटो लिये
उसके हाथ अब भी काँप रहे थे | ‘तो ये तुम थे...आज भी इतना प्यार करते हो मुझसे?? क्यों..आखिर
क्यों??? जानते हो मैं भी तुमसे...’ आश्चर्य और ख़ुशी से सहमी निवेदिता ने अचानक ही
अपने ख्यालों को थाम लिया | कुछ पल के लिये ठहरी..फिर फोटो को वापिस लिफ़ाफे में
डालते हुए सिसकने लगी ‘लेकिन माफ़ करना रचित मैं तुमसे प्यार नहीं करती..बिलकुल
नहीं करती..’ लिफ़ाफे के मुहाने से झांक रही चिठ्ठी भी फोटो के साथ ही अन्दर सरक
गयी |
रचित शाम से ही मोबाइल में लगा था | मोबाइल की मैसेज
रिंग बार बार बज रही थी | सारे मैसेज उसके ऑफिस से ही थे | अक्सर ऑफिस के काम से
जुड़े मैसेज आते रहते | अधिकारी पद की उसकी अपनी जिम्मेदारियां और दबाव था | वह एक
एक कर सबका जवाब दे रहा था | कुछ देर के लिये फुर्सत मिली तो पूरा मैसेज बॉक्स चेक
कर डाला...हम्म..आज भी कोई नया नम्बर नहीं..आखिर उसने मैसेज क्यों नहीं किया |
उसने ठण्डी सांस भरी | आज पूरे चार दिन हो गये..वो दिन भर मोबाइल की ओर देखता रहता..शायद
उसका मैसेज आ जाये या फिर फोन ही..इसीलिये तो उसने चिठ्ठी में नंबर लिखा था | उसकी
आशाएं अब हताशा की गोद में झूल रहीं थीं |
तभी कमरे में सुशीला ने प्रवेश किया | मुस्कुराते हुए उसके
पास आयीं और मेज पर एक लिफ़ाफ़ा रखते हुए बोलीं ‘देख आज लखनऊ से तेरे लिये बड़ा अच्छा
रिश्ता आया है..बड़ी प्यारी लड़की है..मुझे तो पसंद है तू भी देख लेना |’ वह बाहर
जाने लगीं लेकिन तभी रचित ने उनका हाथ पकड़ लिया | वह कुर्सी से उठा और फाइल उठाकर
वापस मम्मी के हाथों में रख दी | ‘मम्मी मैं किसी और लड़की से शादी नहीं कर सकता | मैं
केवल उसी से प्यार करता हूँ और उसी से शादी करूंगा...’ अनुनय करती आँखों और हाथ के
आड़े टेढ़े इशारों से बचपन से बेजुबान रचित ने दिल से चीख चीख कर निकल रहे अपने जज्बातों
को शब्दों का आवरण ओढ़ा दिया |
Story by: Nitendra Verma
Wah nitendra ji, bahut khub likha aapne.
ReplyDeleteBahut khoob nitendraji
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