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Thursday, June 9, 2016

लघुकथा - खुशकिस्मत

खुशकिस्मत


शर्मा जी दो दिन से फूले नहीं समा रहे थे | उनकी दूसरी बेटी का ब्याह जो तय हो गया था | घर के पीछे वाली गली में मात्र आठ दस कदम की दूरी पर थी उसकी होने वाली ससुराल | पहली बेटी के हाथ पांच साल पहले ही पीले कर चुके थे | उसका रिश्ता ढूँढने भी उन्हें बहुत दूर नहीं जाना पड़ा था | ठीक सामने वाली गली में चौथा मकान था | यह सब सोचकर ही शर्मा जी का दिल छलांगें मार रहा था | खुद को बड़ा खुशकिस्मत मान रहे थे शर्मा जी |
अच्छे  सरकारी विभाग में अधिकारी थी उनकी बेटी | दामाद भी अधिकारी ही ढूँढा था | सगाई भी इसी हफ्ते होनी है | दिवाली पर सभी घर में रहेंगे ये सोचकर शर्मा जी और लड़के के घर वालों ने सब जल्दी से तय कर लिया था | शर्मा जी तैयारियों में इतना व्यस्त हो चुके थे कि तमाम करीबियों को भी सगाई के दो दिन पहले ही पता चल पाया | दिवाली के ठीक अगले दिन ही सगाई का कार्यक्रम संपन्न हो गया | बिटिया छुट्टियाँ बिता कर वापस चली गयी |
अब शर्मा जी शादी की तैयारियों में जुट गये | सगाई के अगले ही हफ्ते उन्हें कहीं से पता चला कि उनका होने वाला दामाद अधिकारी न होकर एक मामूली क्लर्क है | उन्हें एक झटका सा लगा | उन्होंने तुरंत विभाग से जानकारी की | पता चला कि वाकई यह सत्य है | अगले दिन ही वह अपनी बेटी की होने वाली ससुराल गये जहाँ उन्होंने अपनी चिंता बताई | अब तक जो परिवार लड़के को अधिकारी बता रहा था वह अजीब अंदाज में अपनी बात से पलटा | समधी जी बोले ‘क्लर्क है तो क्या हुआ? अगले साल प्रमोशन हो जायेगा, अधिकारी बन जायेगा’ | शर्मा जी का चेहरा गुस्से से सुर्ख लाल हो रहा था | शर्मा जी बिना कुछ बोले घर वापस लौट आये | कुछ दिन पहले तक खुद को खुशकिस्मत मान रहे शर्मा जी आज भी खुद को खुशकिस्मत मान रहे थे |

Short Story by: Nitendra Verma

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