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Sunday, May 21, 2017

कहानी - अरमान

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नितेन्द्र वर्मा 



पढ़ें नितेन्द्र वर्मा की लिखी नयी कहानी "अरमान"...पढ़ें और पसंद आये तो कमेंट व  शेयर अवश्य करें...



अरमान
सा
रा राशन आ चुका था | हलवाई और गाड़ी वाले को दोबारा फोन कर ही दिया था | लगभग सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं | शाम के छः बज रहे थे | दिन भर की भाग दौड़ के बाद अब जाकर सुरेश को राहत की सांस मिली थी | महीने भर से बेचारा दौड़ भाग में लगा था | बिटिया की शादी करना कोई हँसी मजाक तो है नहीं | चप्पलें घिस जाती हैं तब जाकर ये पल आता है | आदमी अगर गरीब हो तो और कोढ़ में खाज | बेहद गरीब है सुरेश | बटाई में खेती किसानी कर किसी तरह पांच जनों का गुजर बसर कर पा रहा है | भगवान ने भी कोई कसर ना छोड़ी, दोनों बिटिया ही जनीं उसकी औरत ने | फिर भी सुरेश ने उन्हें अपनी हैसियत भर खूब अच्छे से पाला पोसा | बिटिया इत्ती तेजी से बड़ी हो जाती हैं कि बस्स...दो चुटिया बांधें आँगन भर में दोनों उधम मचाती फिरती थीं...जैसे कल की ही बात हो | और आज देखो बड़ी बिटिया बिदा होने को तैयार है | तीन महीने पहले ही शादी तय हुई है | यूँ तो लड़का वो सालों से ढूंढ रहा था लेकिन कहीं उसे लड़का पसंद नहीं आता तो कहीं गरीबी सीना ताने उसे चिढ़ाती |

Nitendra,speaks,hindi kahaniyan,hindi stories,poetry,poem,kawita,gazal,articles,success storiesबड़ी मुश्किल से उसे मन माफिक लड़का और घर मिल पाया | उसके पास तो बहुत जमा पूंजी थी नहीं | कुछ उधार तो कुछ कर्जा लेकर तैयारियों में जुट गया था | वह नहीं चाहता था कि कोई उसकी बिटिया को ये उलाहना देता फिरे कि उसके बाप ने तो उसे सूखे सूखे ही विदा कर दिया | उसकी जान बसती थी बड़ी बिटिया में | यूँ तो दोनों बेटियां उसे प्यारी थीं लेकिन बड़ी बिटिया के लिये उसके दिल में अलग ही जगह थी | जब छोटी थी दिन भर गोदी में उठाये घूमता रहता | खेतों में भी जाता तो साथ ले जाता | जान छिड़कता था उस पर | लोगों ने बहुत विरोध किया लेकिन उसने बिटिया को खूब पढ़ाया लिखाया | इतना पैसा तो नहीं था कि बाहर शहर पढ़ने भेज पाता हाँ गाँव में जितनी पढ़ाई हो सकती थी वो जरूर करायी | अब बस चार दिन बाद वो विदा होकर अपने घर चली जाएगी | ये घर पराया हो जायेगा | और वो...वो भी तो पराया हो जायेगा...सालों का रिश्ता एक पल में पराया हो जायेगा...उसने गीली हो आई अपनी आँखों की कोरों को पसीने से तर कमीज से पोंछ लिया |

एक नजर उठाकर उसने अपने घर पर डाली | ताज़ी लीपी मिट्टी की चार दीवारों के ऊपर टिका छप्पर, गोबर से अच्छे से लीपा गया आँगन, आँगन के बीचोंबीच गोबर से ही बनाई गयी तरह तरह की सुन्दर आकृतियाँ व फूल और उसके आगे लिखा स्वागत....कितना प्यारा लग रहा था...इस नैसर्गिस सुन्दरता के आगे तो सुरेश को पत्थर और टाइल्स से जड़े मकान भी फीके लग रहे थे | जरूर ये सब उसकी बड़ी बिटिया ने किया होगा | कला में बड़ी निपुण है | एक बार फिर उसे अपनी इस बिटिया पर मान हो आया | बस ख़ुशी ख़ुशी विदा हो जाये...जहाँ जाये राज करे...उसकी तरफ से कोई कसर न रहने पाये...बस इतने जरा से ही तो अरमान हैं उसके |
  
घर निहारते निहारते उसकी नजर आसमान पर गयी | वह अचानक ठिठक कर उठ खड़ा हुआ | अरे बैशाख माह में बदरी...शादी की वजह से गेहूं की फसल तो पहले ही काट ली थी | उसकी कोई चिंता न थी बस्स बरसात न हो जाये वरना उसका कच्चा घर...उसके माथे पर चिंता की लकीरें गाढ़ी हो गयीं | धीरे धीरे बदरी का रंग पीला हो गया | हो न हो आंधी आने वाली है...अरे ओ सुरतिया, अंजू, मंजू...कहाँ हो सब जल्दी बाहर आओ देखो आँधी आने वाली है...सबको आवाज लगाते हुए वह बाहर पड़ा सारा सामान समेटने में जुट गया | उसकी पत्नी सुरतिया और दोनों बिटिया अंजू मंजू भी दौड़ते हुए बाहर आ गयीं | सामान समेटना शुरू ही किया था कि आँधी प्रचण्ड वेग से आ गयी | सब जल्दी जल्दी हाथ चलाने लगे | अभी सुरेश पहली बोरी ही अन्दर पहुंचा पाया था कि गाँव भर का हल्ला सुन बाहर दौड़ पड़ा | ‘का हुआ सुरतिया काहे गाँव वाले हल्ला काटे हैं...’ सुरेश ने अपनी पत्नी से पूछा | सुरतिया बोली ‘अब का पता...तुम अपना घर संभालो फिर गाँव भर की चिंता करना’ | ‘नहीं नहीं कुछ बात तो है...मैं जरा देख कर आता हूँ’ सुरेश हड़बड़ाहट में बाहर निकल आया |


बाहर का नजारा देख सुरेश के पैरों तले जमीन खिसक गयी | वह पैर सिर पर रख कर अंदर भागा | ‘सुरतिया जल्दी कर...सारा सामान बाहर निकालना पड़ेगा...अंजू मंजू जल्दी भागो’ सुरेश हांफते हुए बोला | ‘क्या हो गया बाबू...बताओ तो सही...’ उसकी बड़ी बिटिया अंजू ने पूछा | ‘पड़ोस के छप्पर में आग लग गयी बिटिया...बस आँधी के थपेड़ों संग किसी भी पल यहाँ पहुँचती होगी’ सुरेश दौड़ते हुए अन्दर घुस गया | सुरतिया दहाड़ें मार कर रोने लगी ‘हाय मेरी अम्मा...अब का होगा...पाई पाई जोड़ कर बिटिया की शादी का इंतजाम किया था...हाय रे मेरी फूटी किस्मत...’ | ‘अरे अम्मा रोना धोना बंद करो और जल्दी सामान बाहर निकालो...’ छोटी बिटिया मंजू डपटते हुए बोली | चारों पूरे जी जान से सामान बाहर निकालने में जुट गये | आँधी अब तक रौद्र रूप धारण कर चुकी थी | पड़ोस के छप्पर में लगी आग ने बाकी घरों को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया था | एक छप्पर से दूसरे...दूसरे से तीसरे में....आग फैलती ही जा रही थी...मानो आँधी ने उसे अपने कंधे पर बिठा रखा हो | सांय सांय करती आँधी की आवाज से सब सहम गये थे | सबका दिल डूबा जा रहा था | धड़कनों की रफ़्तार कई गुना बढ़ गयी थी |

थोड़ा सामान ही बाहर निकाल पाये थे कि अंजू चिल्ला पड़ी ‘बाबू...जल्दी बाहर निकलो....हमारे छप्पर ने भी आग पकड़ ली...’ | आँधी के रथ पर सवार आग की लपटों ने सुरेश के छप्पर को भी अपनी चपेट में ले लिया | मंजू और सुरेश भागकर बाहर आ गये | सुरेश का दिमाग सुन्न पड़ गया | उसे कुछ सूझ नहीं रहा था | कुछ पल के लिये उसकी आँखों के सामने अँधेरा सा छा गया | अंजू मंजू भी उदास हो गयीं | तभी अंजू अचानक अन्दर भागी...’दीदी, कहाँ जा रही हो बाहर आओ’ मंजू चिल्लाई | ‘अम्मा ये सब छोड़ो बाहर चलो...’ अंजू सुरतिया को खीचने लगी | सुरतिया बदहवास सी अंजू की शादी के लिये खरीदे गये कपड़े और गहने इकट्ठा करने में लगी थी | बड़ी मुश्किल से अंजू उसे घसीटते हुए बाहर लायी | ‘बाबू तुम क्या कर रहे हो? दादी अन्दर ही फंसी हैं...न जाने क्या बड़बड़ा रही हैं...चलो जल्दी...’ अंजू चीख पड़ी | सुरेश ये सुनते ही जैसे बेहोशी से बाहर निकला | उसने अन्दर दौड़ लगा दी | मंजू भी अन्दर पहुँच गयी | सुरेश की अम्मा अन्दर ही डेरा जमाये बैठी थी | वह किसी भी हालत में बाहर आने को तैयार नहीं थीं | ‘मर जाऊँगी लेकिन अपना घर छोड़ कर नहीं जाऊँगी | तेरे बाबू की खून पसीने की कमाई से बना है ये घर...यहीं जल कर भस्म हो जाऊँगी...तिनका तिनका जोड़ा है अपनी पोती के लिये...उसे जलते देखने से पहले खुद जल जाऊँगी....’ सुरेश के पास आते ही अम्मा चिल्ला पड़ीं | तब तक आग की खौफनाक लपटों के आगे छप्पर ने हथियार डाल दिये | छप्पर का एक हिस्सा जलते हुए ठीक अम्मा की चारपाई के पीछे गिर पड़ा | वहाँ रखा सारा सामान भकभका कर जल उठा | इससे पहले की आग चारपाई तक पहुँचती सुरेश ने मंजू को इशारा किया और दोनों अम्मा को जबर्दस्ती उठा कर बाहर ले आये |                  
बाहर सुरतिया और अंजू कुएँ से पानी भर भर कर छप्पर पर डालने में जुटे थे | सुरेश और मंजू भी बाल्टी लेकर भागे | ‘तुम लोग जल्दी जल्दी पानी निकालो मैं और अंजू पानी डालते हैं...’ हांफते हुए सुरेश बोला | सुरेश और अंजू बाल्टी लेकर दौड़ लगाते रहे | लेकिन आसमान छूती आग की लपटें किसी एनाकोंडा की तरह ऐसे फुफकार रही थी मानो आज सब कुछ लील कर ही मानेगी | सारी मेहनत व्यर्थ ही साबित हो रही थी | इधर दोनों बाल्टियों से पानी डालते जा रहे थे उधर आग सब कुछ स्वाहा करने पर तुली थी | अब तो उसका पूरा घर ही आग के गुबार में तब्दील हो चुका था | कुछ बचने की उम्मीद भी नहीं बची थी | सब थक कर बैठ गये | सुरतिया छाती पीटने लगी तो अंजू मंजू ने भी रोना पीटना चालू कर दिया | ...लेकिन सुरेश ने अभी भी हार नहीं मानी थी | अब वह कुँए से खुद पानी निकाल रहा था और अकेले ही लगभग पूरे जल चुके घर में पानी उड़ेल रहा था | वह जाता कुँए से पानी निकालता फिर आग का गोला बने घर पर पानी उड़ेल देता...घंटों यही करता रहा...यंत्रवत...कई बार तो लड़खड़ा कर जमीन पर औंधें मुंह गिर पड़ा...अचानक सुरतिया ने नजरें उठायीं...सुरेश को ऐसे देख चौंक पड़ी ’अरे अंजू के बाबू छोड़ दो सब...कुछ नहीं होने वाला...जब फूटी किस्मत ही लेके पैदा हुए हैं तो खुशियाँ कहाँ से मिलेंगी...’ सुरेश पर उसकी बात का कोई असर न पड़ा | शायद उसने सुना ही नहीं...वह अपने काम में यथावत लगा रहा | थोड़ी देर बाद सुरतिया ने फिर टोका...लेकिन सुरेश तो जैसे पागल ही हो गया था...गहरे सदमें में चला गया था...सुरतिया ने कई बार आवाज लगायी लेकिन सुरेश तो मानो सुनने की क्षमता ही खो चुका था....इस बार सुरतिया गुस्से से उठी और उसके हाथों से बाल्टी छीन कर पटक दी और उसके दोनों हाथ पकड़ कर उसे झकझोर दिया...‘पगला गये हो का...राख पे पानी डालने से कुछ ना बदलेगा...राख राख ही रखेगी...हमारा घर गृहस्थी, पाई पाई...सब राख हो गयी...कुछ नहीं बचा...’ सुरतिया फिर से दहाड़ें मार कर रोने लगी | सुरेश ने उसे झटका और गुस्से से तमतमाता, काँपता हुआ गाँव के बाहर की ओर निकल गया |

इधर अंजू आँखें मीचे, गर्दन घुटनों के बीच घुसाये बेसुध एक कोने में धंसी पड़ी थी...’अब क्या होगा? काहे हमको लड़की बना के पैदा किये भगवान? लड़की ना होते तो बाबू इस कदर ना टूट जाते...वो जानती है बाबू ने कितनों लोगों के हाथ पैर जोड़े थे तब जाकर शादी का इंतजाम कर पाए थे...सारा दोष उसके लड़की होने का है...’ उसकी ऑंखें आंसुओं के समुद्र में डूब गयीं | सुरेश बदहवाश सा दौड़ा जा रहा था | वह कदम रखता कहीं और पड़ते कहीं और | उसे नहीं मालूम था वह कहाँ जा रहा था | पूरे वेग से भागते सुरेश के कदम थमे गाँव के करीब तीन किमी दूर नहर की पुलिया पर | वहां पहुँचते ही वह ठिठक गया | वह पुलिया पर ही बैठ गया | उसने नजरें उठायीं...’बस्स यही दिखाना बाकी रह गया था...कभी तुझसे शिकायत नहीं की...कुछ नहीं माँगा...गरीबी थी लेकिन कम से कम जी तो रहे थे...मेरी दिल का टुकड़ा मेरी बिटिया की शादी अच्छे से हो जाये बस्स इतना ही तो अरमान था मेरा...इतना भी न देखा गया तुझसे...मेरे अरमानों की चिंदी चिंदी करके तूने आग के हवाले कर दी...अब खुश...’ सामने बने छोटे से हनुमान मंदिर में विराजे हनुमान जी पर उसने सारा गुस्सा निकाल दिया...’रोज आता था न तेरे दर पे...बस्स अब नहीं...आज के बाद मैं तेरा भक्त नहीं...जो मेरी बिटिया के सुखों को आग लगा दे मैं उसकी पूजा नहीं कर सकता...आज से तू मेरा भगवान नहीं...का करेगी मेरी बिटिया अब...कैसे पीले करूंगा उसके हाथ...का मुँह दिखाऊंगा उसके ससुराल वालों को...जो बाप अपनी बिटिया की शादी तक नहीं कर सकता उसे इस दुनिया में रहने का कोई अधिकार नहीं...ऐसी जिन्दगी से तो मर जाना अच्छा है...’ |

सुरेश ने पसीज आई हथेली को समेटते हुए मुट्ठी भींच ली | उसके होंठ मजबूती से चिपक गये | उसने कुछ निश्चय कर लिया था | अगले ही पल वह पुलिया के बीचोंबीच नहर के किनारे पर खड़ा था | आज वह अपने सारे दुखों का अंत कर देगा...थक गया है ऐसी जिन्दगी से...मौत अगर इससे बेहतर नहीं तो इससे बुरी भी नहीं होगी...उसने अपनी आँखें बंद कर लीं | उफनाई नहर की लहरों की आवाज उसके कानों में पड़ रहीं थीं...मानो उसे अपनी गोद में बैठने के लिये बुला रही हो | वह उन लहरों के साथ ही दुनिया भर के झंझावतों से एकदम दूर चला जाना चाहता था...वह कूदने ही जा रहा था कि उसके कानों में आवाज पड़ी...’इतने कमजोर हो तुम...हमें किसके भरोसे छोड़ कर जा रहे हो...अगर हमने भी तुम्हारा ही दिखाया रास्ता चुन लिया तो? बचपन से लेकर आजतक हमारे लिये हमारी खुशियों के लिये लड़ते आ रहे हो और आज जब असल इम्तिहान आया तो पहले ही हार मान गये...मेरा बाबू तो ऐसा न था...याद है बचपन में मुझे स्कूल जाने से सबने कितना रोका था तब तुम ढाल बन कर मेरे सामने खड़े हो गये थे...और आज जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत है तब अकेले छोड़ कर जा रहे हो...ठीक है जाओ...तुम मुझे छोड़ कर जा सकते हो लेकिन याद रखना मैं तुम्हे कभी नहीं छोडूंगी...पीछे पीछे तुम्हारे पास आ जाऊँगी...’ अपनी प्यारी बिटिया की आवाज सुन अचानक ही सुरेश की आंखें खुल गयीं | वह पूरी ताकत लगा कर चीख पड़ा...अब तक सूखी पड़ी उसकी आँखों से अश्रु धारा बह निकली...वह फफ़क कर रो पड़ा...वह पुलिया पर ही बैठा देर तक आंसू बहाता रहा...उसने अपने आंसुओं को पोंछने की रत्ती भर भी कोशिश न की | शायद वह जी भर रो लेना चाहता था...वह रोया दहाड़ें मार मार के रोया...इतना रोया कि थक कर न जाने कब वहीं पुलिया पर ही सो गया |  
                               
अगली सुबह उसकी नींद खुली...शायद तीन चार बजे रहे होंगे...आँखें खुलते ही वह उठ बैठा...रोते रोते कब सो गया था उसे पता ही नहीं चला | उसे अजीब सा हल्कापन महसूस हो रहा था | शायद आंसुओं के साथ उसका सारा बोझा भी बह गया | उसने अपने कदम तेजी से घर की ओर बढ़ा दिये | हनुमान जी को तिरछी नजर से घूरा और गति बढ़ा दी | गाँव का द्रश्य ह्रदय विदारक था | आधे से ज्यादा घर खाक हो चुके थे | केवल वही घर बच पाए थे जो पक्के थे | अपने घर पहुँचते ही उसने देखा कि सुरतिया और अंजू मंजू एक दूसरे से चिपटी पड़ीं सो रही हैं...अम्मा दिखाई नहीं पड़ रही थीं...वह अन्दर की ओर गया...अम्मा काली पड़ गयी दीवार के बगल में बैठी कुछ कर रही थी | ‘का कर रही हो अम्मा ?’ सुरेश पूछ बैठा | अम्मा ने उसकी ओर बिना देखे ही जवाब दिया ‘कुछ नहीं बच्चा...चूल्हा बना रही हूँ...जो होना था सो हो गया...अब परसों बिटिया को बिदा भी तो करना है’ सुरेश अम्मा से चिपट कर फफकने लगा...उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी अम्मा की इस सोच और अपनी सोच में फर्क देख वह ग्लानि से भर उठा | कुछ समय पहले का द्रश्य उसकी आँखों के सामने घूम  गया...क्या अनर्थ करने जा रहा था वो |

दोपहर हो गयी थी | सब अपनी अपनी चिंता में डूबे थे | तभी पड़ोस के घर से खाना आ गया | कल रात तो पूरा गाँव भूखा ही रहा | किसी के घर चूल्हा नहीं जला था कल | सब एक दूसरे को ढांढस बंधाते रहे | खाना देख सबने मुंह घुमा लिया | ऐसे में कोई क्या खाये | लेकिन सुरेश ने सबको समझा बुझाकर खाना खिलाया | खाना खाकर बैठे ही थे कि पड़ोस में दुकान रखे मैकू ने आकर बताया ‘लड़के वालों का फोन आया था | उन्हें पता चला तो अफ़सोस जता रहे थे | लेकिन कह रहे थे बारात वालों के खाने पीने का जरा ध्यान रखना |’ ‘लो ऐसे में भी उन्हें अपने खाने पीने की पड़ी है ’ अंजू गुस्से से बोल पड़ी | सुरेश ने समझाया ‘अरे अब बारात आयेगी तो खिलाना पिलाना तो पड़ेगा ही ना | तू चिंता न कर सब हो जायेगा |’ उसने कह तो दिया लेकिन कैसे हो जायेगा उसे खुद पता नहीं था | वह कुछ सोचता हुआ अन्दर घुसा | इधर उधर कुछ खोजने लगा | जो ढूंढ रहा था वो मिला तो लेकिन जली हालत में | अलमारी में रखी बैंक की पासबुक हाथ में उठाते ही राख की तरह टुकड़े टुकड़े होकर हाथ में फैल गयी | शायद कुछ रूपये उसके खाते में पड़े हों | वह झट से बैंक के लिये निकल गया |

बैंक पहुँच कर उसने पता कराया करीब ढाई हजार रुपया बाकी था उसके खाते में | वह निकासी फॉर्म भरकर लाइन में लग गया | उसका नम्बर आने पर कैशियर ने बिना पास बुक के पैसे देने से साफ़ मना कर दिया | मैनेजर के हाथ पैर जोड़े तब कहीं जाकर उसके पैसे निकले | ढाई हजार रूपये पाकर ही उसे लगा जैसे कोई खजाना मिल गया हो | घर पहुँच कर फिर से वह चिंता में डूब गया | सुरतिया तो बोली कि ‘लड़कों वालों को साफ़ साफ़ मना कर दो...न हो पायेगा हमसे...केवल घर वाले आयें और बिटिया ले जायें...अंधे नहीं है वो...’ | सुरेश बोल पड़ा ‘बड़े अरमान थे हमारे कि बिटिया की शादी बड़ी धूमधाम से करेंगे...कोई कसर न छोड़ रखेंगे...’ | ‘जल गया घर, जल गया सारा सामान और उसी में भस्म हो गये तुम्हारे हमारे अरमान...’ फट पड़ी सुरतिया | अंजू बोली ‘काहे नहीं मना कर देते...नहीं करनी मुझे ये शादी वादी’ | ‘बस्स करो तुम सब...चुपचाप बैठो...बहुत सुन लिये...’ सुरेश सबको घूरते हुए चिल्ला पड़ा | सब सकपका गये | सुरेश को इस कदर चिल्लाते कभी किसी ने नहीं देखा था | सबके होंठ सिल से गये | वहां सन्नाटा पसर गया |

देर से पड़ी ख़ामोशी की चादर हटाई मैकू ने | दूर से ही चिल्लाते हुए आ रहा था | शायद फिर किसी का फोन था | फोन तो सुरेश के पास भी था लेकिन उसे भी आग ने राख कर दिया | अब किसका फोन होगा ? कहीं लड़के वालों का फोन दोबारा तो नहीं...सुरेश अन्दर तक काँप गया...’सुरेश भैया साहब का फोन था...’ मैकू आते ही बोला | ‘साहब, कौन साहब ?’ सुरेश ने आश्चर्य से पूछा | मैकू ने भी उतनी ही हैरानी से जवाब दिया ‘अरे कलेक्टर साहब के ऑफिस से फोन था...तुम्हे बुलाये हैं |’ सुरेश...’कलेक्टर साहब हमें बुलाये हैं...अब का हो गया?’ मैकू ‘अब ये सब तुम समझो |’ सुरेश का दिल कांपने लगा...अब ना जाने कौन सी आफत आने वाली है | जाये की न जाये...इसी उधेड़बुन में था कि बगल में रहने वाले उसके बड़े भाई साहब आ गये | ‘अब कलेक्टर साहब बुलाये हैं तो जाना तो पड़ेगा वरना किसी आफत में न फंस जायें’ भाईसाहब ने समझाया | सुरेश ने भाई साहब को भी चलने के लिये तैयार कर लिया |

उसके गाँव से तीस पैतीस किमी दूर था कलेक्टर साहब का ऑफिस | वह बस में बैठ गया | न जाने काहे बुलाये हैं...जरूर हमसे ही कोई गलती हो गयी होगी...दिल की बढ़ी धड़कनों में लिये अजीब डर के साथ रास्ते भर यही सोचता रहा | घंटे भर का रास्ता आज उसे बड़ा लम्बा लग रहा था | आखिरकार वह ऑफिस पहुँच गया | थोड़ी ही देर में कलेक्टर साहब ने उसे अन्दर बुलवा लिया | डर के मारे उसके पैर कांपने लगे, गला सूख गया | किसी तरह हिम्मत जुटा कर अन्दर घुसा | भाईसाहब भी पीछे पीछे आ गये | कलेक्टर साहब ने मुस्कुराते हुए दोनों को बैठने को कहा | दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे | उनकी झिझक भांप कर कलेक्टर साहब ने फिर से बैठने को कहा | साहब ने उनके लिये पानी मंगवाया | पानी आते ही सुरेश पूरा पानी एक सांस में गटक गया | ‘ह्म्म्म...सुरेश नाम है तुम्हारा ?’ साहब ने पूछा | ‘जी...जी साहब...’ सुरेश हकलाते हुए बोला | उसे कुछ अचरज हुआ...साहब को उसका नाम कैसे मालूम है | ‘अच्छा सुरेश...शादी की तैयारियां हो गयीं ?’ साहब ने फिर पुछा | सुरेश ने साहब की आँखों में देखा...फिर निराश स्वर में बोला ‘क्या तैयारी साहब...आग ने हमारी सारी तैयारियों को जला डाला |’

‘हम्म...निराश होने की जरूरत नहीं है सुरेश...तुम्हारी बिटिया की शादी पूरे धूमधाम से होगी | उसे बिदा करने के जो अरमान तुमने संजो रखे थे सब पूरे होंगे’ दिलासा देते हुए साहब बोले | सुरेश को साहब की बातें कुछ पल्ले नहीं पड़ रहीं थीं | उसने ख़ुशी और आश्चर्य मिश्रित अजीब सा मुंह बनाया | साहब उठते हुए बोले ‘आओ मेरे साथ आओ |’ सुरेश उनके पीछे पीछे खिंचा चला गया...न मालूम कहाँ ले जा रहे हैं...| साहब उसे एक कमरे में ले गये | अन्दर घुसते ही सुरेश की आँखें फटी रह गयीं...शादी का जोड़ा, तमाम साड़ियाँ, ढेर सारी मिठाइयाँ, सिलाई मशीन और न जाने क्या क्या...’ये सब क्या है साहब ?’ सुरेश ने आश्चर्य से पूछा | साहब ‘अरे भाई बिटिया की शादी का सामान है...’ ‘लेकिन...ये सब...’ सुरेश कुछ बोलना ही चाहता था कि साहब ने उसकी बात बीच में ही काटी ‘सारा सामान ध्यान से देख लो अगर कोई कमी लग रही हो तो बताओ’ | सुरेश अवाक रह गया...उसने नजरें उठा कर साहब को देखा...एक बारगी तो उसे सामने साक्षात भगवान खड़े दिखाई दिये...बरबस ही उसकी ऑंखें बह चलीं...उसके काँपते हाथ साहब के पैरों की ओर बढ़ गये...लेकिन साहब ने उसे सीने से लगा लिया | भावविभोर सुरेश स्नेह भरा स्पर्श पाकर फफ़क पड़ा...’साहब...आप तो हमें जीवन भर के लिये ऋणी बना दिये..कैसे चुकायेंगे हम आपके एहसानों का बदला?’ साहब ने उसे संभाला ‘तुम्हारी बिटिया हमारी बिटिया नहीं है क्या...एक पिता अपनी बिटिया के लिये इतना भी नहीं कर सकता?’ सुरेश ने अब तक गले में पड़ा गमछा निकाला और आंसुओं में डूबा चेहरा ढांप लिया | अब कुछ बोलने की हिम्मत उसमें न बची थी |

तभी कुछ और लोग भी अन्दर आ गये | समाजसेवी संस्थाओं के सदस्यों ने उसकी बिटिया की शादी के लिये तमाम चीजें दीं | वह बिना कुछ बोले बस हाथ जोड़े सब देखता रहा | उसे यह सब सपना सा लग रहा था | इतनी तैयारी तो वह खुद भी कभी न कर पाता | थोड़ी देर में साहब बोले ‘सुरेश तुम एहसानों का बदला चुकाने चाहते हो ना ?’ सुरेश कुछ अचकचाया | साहब मुस्कुराते हुए बोले ‘बदला चुकाने के लिये तुम्हे एक काम करना होगा...’|  सुरेश ‘जी साहब...’ ‘घर जाओ और मेरी बिटिया की शादी की तैयारियों में जुट जाओ...कोई कमी नहीं रहनी चाहिये...अगर कोई कमी रही तो...’ कहते हुए साहब ने अपने बटुए से कुछ नोट निकाले और सुरेश की कमीज की जेब में रख दिये | ‘कोई कमी न रहेगी साहब...आप का आशीर्वाद मिल गया अब काहे की कमी साहब...’ सुरेश बोल पड़ा | साहब ‘हम्म...मैंने सामान घर तक पहुँचाने का इंतजाम कर दिया है...ध्यान से ले जाना..उस गाड़ी में बेड और सोफ़ा पहले से ही रखा है...’ सुरेश हाथ जोड़ते हुए बाहर निकल ही रहा था कि साहब ने फिर टोका ‘हाँ मेरी एक शर्त भी है...’ ‘साहब आदेश कीजिये...’ सुरेश पलट कर बोला | ‘भई बारात का स्वागत हम करेंगे...’ साहब की इस बात पर वहां मौजूद सब लोग हँस पड़े | सुरेश रुंधे गले से बोल पड़ा ‘साहब हमारी तो हैसियत नहीं कि आपको अपने घर आने का न्योता दे सकें लेकिन अपनी बिटिया के घर आने के लिये भी कोई पूछता है क्या ?’ | साहब ने फिर से गले लगाकर उसे सामान सहित रवाना किया |   

रास्ते भर सुरेश किसी कल्पना लोक में सफ़र करता रहा | उसे अभी थोड़ी देर पहले जो कुछ हुआ उस पर यकीन करना मुश्किल हो रहा था | उसने छुप छुप के कई बार अपने चिकोटी भी काटी...आश्चर्य...हर बार उसे दर्द हुआ | वह गाँव पहुँचने ही वाला था...गाड़ी नहर की पुलिया से उतर गयी थी...सहसा उसकी नजर मंदिर में विराजे हनुमान जी पर पड़ गयी...वह बरबस ही नतमस्तक हो गया | जिन्हें कल वह कोस रहा था आज शायद उन्ही के दर्शन करके आ रहा था | उसने अपनी आँखें बंद कर लीं... उसने सपने में भी न सोचा था कि एकबारगी जल चुके उसके अरमान पूरे भी होंगे और उन पूरे होते अरमानों के रंग इतने सुनहरे होंगे | अरमानों को सजाने और पूरा करने के नये जोश और नयी उमंग लिये वह घर की ओर बढ़ चला |     


(यह कहानी एक सत्य घटना से प्रेरित है)

Story by: Nitendra Verma
                                                                              Date: May 14, 2017 Sunday

6 comments:

  1. Bahut shaandaar kahani nitendra ji

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  2. नितेन्द्र साहेब
    बहुत सुंदर व मार्मिक कहानी
    बहुत बहुत बधाई आपको

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  3. उत्साहवर्धन के लिये सभी का बहुत बहुत धन्यवाद...

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  4. नितेद्र जी आपकी कहानी आशावादी लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं। धन्यवाद।

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